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________________ 686 नैषधमहाकाव्यम् / स्वेदं हरिष्यतीत्यर्थः / पिबतेः कर्तरि लुट, यथा अतिश्रान्तः तृषितः पान्थः कण्टका. कीर्णदेशस्थं तथा पङ्किलमपि जलं प्रायेण स्वोदरपूरं पिबति तद्वदिति भावः // 109 // उस ( वृन्दावन ) में उत्पन्न, रतिके अन्तिम समयमें हर्षसे रोमाञ्चित ( पक्षाकण्टकयुक्त ), तुम्हारे स्तनद्वय ( पाठा०-स्तनतट ) में सचरण करने ( लगने, पक्षाघूमने या चलने ) वाला, लँगड़ाता हुआ, प्यासा हुआ पथिक (नित्य चलनेवाला, पक्षा०यात्री ) वायु-समूह ( पक्षा०-वायुरूप मनुष्य ) कस्तूरीसे मलिन ( पक्षा०-पङ्कयुक्त ) श्रमजल (पसीना, पक्षा०-श्रमसे प्राप्त जल) का पान करेगा (सुखावेगा, पक्षापीयेगा)। [जिस प्रकार कण्टकयुक्त वन आदिमें सर्वदा चलनेवाला, कांटों के चुभनेसे लंगड़ाता तथा प्यासा हुआ यात्री स्वच्छ जलके नहीं मिलनेपर पङ्किल ( मटमैले ) पानीको भी पीता है, उसी प्रकार रोमाञ्चयुक्त स्तनोंमें धीरे-धीरे सदा लगता हुआ वायुसमूह कस्तूरीलेपसे मलिनीभूत स्वेदको पान करेगा अर्थात् उसे सुखायेगा ] // 109 // पूजाविधौ मखभुजामुपयोगिनो ये विद्वत्कराः कमलनिर्मलकान्तिभाजः। पूजेति / मखभुजां देवानां, पूजाविधौ यज्ञादिकर्मणि, उपयोगिनः प्रतिग्रहोप. कारिणः, ये विदुषां कराः पाणयः, कमलेन जलेन, दानसम्बन्धिजलेन इति भावः, निर्मला या कान्तिः तद्भाजस्तद्विशिष्टाः अथवा-कमलानां या निर्मलकान्तिस्तदाजः पद्मसदृशाः, ते विद्वत्कराः लक्ष्मी दधता श्रीमता, अनेन राज्ञा, अनुदिनं वितीर्णैः दत्तैः, हाटकैः सुवर्णैः, 'स्वर्ण सुवर्ण कनकं हिरण्यं हेम हाटकम्' इत्यमरः / स्फुटाः उज्ज्वलाः, वराटकाः कर्णिकाः, 'बीजकोशो वराटकः कर्णिका कर्णिकञ्च' इति वैजयन्ती, तद्वत् गौराः पीता अरुणा वा, गर्भा अभ्यन्तराणि येषां ते तादृशाः, कृता इति शेषः। 'गौरोऽरुणे सिते पीते' इति विश्वः। कमलानां कर्णिकावत्पाणिकमलानां हाटकैस्तद्वत्वं सम्पादितमित्यर्थः ; अतिदानशीलोऽयं नृपतिरिति भावः // 11 // देवताओंकी पूजा करने में उपयोगी तथा कमल अर्थात् दानजलसे ( पक्षा०-कमलपुष्प के समान ) निर्मल कान्तिवाले जो विद्वानों के हाथ हैं, वे लक्ष्मी ( सम्पत्ति, या शोमा) धारण करनेवाले इस ( मधुराधीश 'पृथु' राजा) के द्वारा प्रतिदिन दान किये गये सुवर्णोसे बीजकोष ( कमलगदृ का छत्ता ) के समान गौर वर्णसे युक्त अन्तर्मागवाले बना दिये गये हैं ( पाठा०-इसके द्वारा अन्तर्भागवाले वे हाथ लक्ष्मी ( सम्पत्ति, या शोमा) धारण करते है ) / [ यह राजा देवपूजनतत्पर विद्वानों को सर्वदा दान करनेवाला है। कमलकोषके पीतवर्ण होनसे हाथमे सुवर्ण लेने पर उसके भीतरी भाग ( तलहत्थी ) को कमलकोषके समान मालूम पड़ना उचित ही है। पहले विद्वानों के हाथ कमलपुष्पके समान-निर्मल कान्तिवाले थे, किन्तु दानशूर इस राजाने सुर्वण-दानकर उन हाथों को बीजकोष (कमलके 1. 'दधते' इति पा०।
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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