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________________ दशमः सर्गः। द्वारा स्पर्धा कराकर ब्रह्माने दमयन्तीसे यह स्पष्ट सूचित कर दिया कि इन्द्रादि देवताओंसे भी नल ही अधिक सुन्दर है, क्योंकि कोई भी चतुर व्यक्ति अपने कार्यको साधने के लिये बड़ेके साथ ही स्पर्धा करता है छोटेके साथ नहीं, अत एव तुम ( दमयन्ती ) सर्वश्रउ नलको ही वरण करो] // 23 // सभा नलश्रीयमकैर्यमाद्यैर्नलं विनाऽभूभृतदिव्यरत्नैः / भामाङ्गणमाघुणिके चतुर्भिर्देवद्रुमैौरिव पारिजाते // 24 // सभेति / सभा सा राजसभा नलश्रियो यमकैः पुनरुक्ताकारैस्तद्पधारिभिरित्यर्थः / तानि दिव्यानि रत्नानि यस्तै रत्नाभरणभूषितरित्यर्थः। यमाद्यैश्चतुर्भिनलं विना तदा नलस्यानागमनात्तेन विनाभूतैरित्यर्थः / अत एव पारिजाते पारिजाताख्ये देवद्रुमे भामायाः सत्यभामायाः अङ्गणस्य चत्वरस्य प्राघुणिके अतिथौ सति, तया उपहृते सतीत्यर्थः / 'आवेशिकः प्राघुणिक आगन्तुरतिथिः स्मृतः' इति हलायुधः / धृतदिव्यरत्नैर्मूलादग्रपर्यन्तंभूतमुक्तादिदिव्यरत्नैः, चतुर्भिर्देवद्रुमैर्मन्दारादिभिः, 'पञ्चैते देवतरवो मन्दारः पारिजातकः / सन्तानः कल्पवृक्षश्च पुंसि वा हरिचन्दनम्' इत्यमरः। द्यौः स्वर्ग इवाभूत् अभादित्यर्थः, मन्दारादिषु सत्स्वपि पारिजातं विना यथा यौन शोभते, तथा नलरूपधारिषु यमादिषु सत्स्वपि नलं विना स्वयंवरसभा न शुशुभे / सभायामिन्द्रादयः समागता नलो नागत इति भावः // 24 // वह सभा ( राजसभा) नलकी शोभाके यमक अर्थात् नलकी शोभाके प्रतिनिधिरूप (नलरूप नहीं ) तथा दिव्य रत्नोंको पहने हुए यम आदि चारों दिक्पालोंसे 'पारिजात' ( नामक देववृक्ष ) के सत्यभामाके आंगनेमें अतिथि होनेपर अर्थात् सत्यभामा के यहां अतिथिरूप में पारिजातके जानेपर ऊपरसे नीचे तक दिब्य रत्नोंसे लदे हुए चार देववृक्षों (मन्दार, सन्तान, कल्पवृक्ष तथा हरिचन्दन ) से युक्त स्वर्ग ही हुई / [ जिस प्रकार पारिजातके विना दिव्यरत्नों से युक्त भी मन्दार आदि चार देववृक्षों के रहने पर भी स्वर्गकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार दिव्य रत्नोंको पहने हुए भी नलरूपधारी यमादि चार दिक्पालों के पहुंचने पर भी उस राजसभा ( स्वयंवर ) को शोमा नहीं हुई / यम आदि चारों दिक्पाल स्वयंवर में नलका रूप धारणकर पहुँच गये और नल नहीं पहुँचे ] 24 / / तत्रागमद्वासुकिरीशभूषाभस्मोपलेहस्फुटगौरदेहः / फणीन्द्रवृन्दप्रणिगद्यमानप्रसीदजीवाद्यनुजीविवादः // 25 // तत्रेति। ईशभूषा योगपट्टसम्पादनार्थ तत्र वासात् ईश्वराभरणभूतः, अत एव भस्मन उपलेहेनोपलेपेन तदङ्गरागभस्मसङक्रमणेन स्फुटगौरदेहः शुभ्राङ्गः वासुकिः फणीन्द्रवृन्दैः सर्पराजगणैः प्राणि गद्यमानो व्याहियमाणः, 'नेर्गदनदे' त्यादिना णत्वम् / प्रसीदजीवशब्दावादिय॑स्य सोऽनुजीविवादः सेवकजन 36 नै
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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