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________________ नंषधमहाकाव्यम् / मुखमारुतसन्धुक्षिताग्निदग्धात् खदिरकाष्ठादेरिवेति भावः। गृहीतैरुपात्तैः सारै साधनैः स्वमात्मानं नलस्यानुकल्पं प्रतिनिधि कल्पयन्ति स्म किमित्युत्प्रेक्षा। अन्यथा तदनु। कल्पतापि कुत इति भावः। अन्येनापि कथनपीडिताग्निदाहादिना वस्तुसारः समाः कृष्यते / एतेन प्रियावियोगादिजन्यक्कथनादिरहितैलचन्द्रादितोऽपि नलस्य सौन्दयाधिक्यं व्यज्यते / 'मुख्यः स्यात् प्रथमः कल्पोऽनुकल्पस्तु ततोऽधमः' इत्यमरः // प्रिया ( उर्वशी) के वियो ।से क्वथित पुरूरवासे (क्वयित करनेसे सिद्ध कर्पूरादिके समान ), ग्रह अर्थात् राहुसे पीडित चन्द्रमासे (कोल्हू में पेले गये तैल के समान ), और शिवजी के द्वारा जलाये गये कामदेवसे (फूंककर जलायी गयी खैर आदिकी लकड़ी के समान) भी लिये हुए सारभूत पदार्थसे वे देव अपनेको नलके समान बनावेंगे क्या ? / [ जिस 'प्रकार लोकमें कोई कारीगर आदि क्वाथकर, निचोड़कर तथा अग्निमें फूककर तैयार किये गये सारभूत पदार्थसे किसी दूसरेके समान सुन्दर वस्तु बनाता है, उसी प्रकार वे देवता उक्त ऐल, चन्द्र तथा कामसे सार लेकर अपनेको नलके समान सुन्दर बना सकते हैं, क्योंकि प्रिया-विरह क्वथन रहित ऐल (पुरूरवा ), ग्रहनिष्पीडन रहित चन्द्र तथा शिवध्यानरहित कामदेवके तुल्य नल तीनोंसे अधिक श्रेष्ठ हैं ] // 22 // नलस्य पश्यत्वियदन्तरं तैभैमीति भूपान् विधिराहृतास्यै / स्पर्धा दिगीशानपि कारयित्वा तस्यैव तेभ्यःप्रथिमानमाख्यत् // 23 // नलस्येति / विधिब्रह्मा नलस्य तैर्भूपैः सह इयत् एतत् परिमितम्, अन्तरं तार• तम्यम्, इयं भैमी पश्यस्विति हेतोः एतान् भूपानाहृत आहृतवान् / हरतेलुङि तङ् 'हस्वादङ्गात् इति सिज्लोपः। किंच दिगीशानपि स्पर्धा कारयिस्वा नलरूपधारणादिद्वारा दिगीशैरपि नलेन सह मत्सरकारयित्वेत्यर्थः 'हकोरन्यतरस्या'मिति विकल्पादणिकर्तुः कर्मस्वम् / तस्य नलस्यैव तेभ्य इन्द्रादिभ्योऽपि 'पंचमीविभक्ते' इति पंचमी / प्रथिमानमाधिक्यमस्य भैम्य आख्यदाख्यातवान् / ख्यातेलुडि 'अस्यतिवक्तिख्यातिभ्योऽङि'ति ग्लेरडादेशः / त्रैलोक्यातिशायि लावण्यमस्येति भैमी प्रत्याययितुमेव ब्रह्मा स्वयम्वरव्याजेन त्रिलोकीमेकत्राचकरेत्युत्प्रेक्षा // 23 // 'दमयन्ती (अन्यान्य आये हुए राजाओं के साथ ) इतने (पाठा-इस) अन्तर दिक्पालों के द्वारा स्पर्धा कराकर उन दिक्पालोंसे नलकी ही श्रेष्ठताको दमयन्तीके प्रति बतलाया [ 'सब राजाओंमें नल ही श्रेष्ठ हैं। इस बातको दमयन्ती राजाओंको विना प्रत्यक्ष देखे नहीं जान सकती थी, इस कारण ब्रह्माने नलसे राजाओंकी न्यूनता बतलाने के लिये स्वयंवरमें राजाओंको दमयन्तीके सामने बुलाया। नलके हमलोगोंकी अपेक्षा अधिक सुन्दर होनेसे विना नलका रूप ग्रहण किये अपना देवरूप ग्रहणकर स्वयंवर में जानेसे हमलोगोंको दमयन्ती नहीं वरण करेगी, किन्तु नलको ही वरण करेगी, अत एव नलके साथ देवोंके
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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