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________________ नैषधमहाकाव्यम् / नल होने ( नलका रूप धारण करने ) के लिये प्रयत्न करनेवाले देवोंके परस्परमें देखने तथा पूछनेसे नल के द्वितीय रूपकी सिद्धि नहीं हुई खेद है; (क्योंकि ) स्वाभाविकसे कृत्रिम (बनावटी) दूसरा अर्थात् हीन ही होता है। [नलका रूप धारणकर उन इन्द्रादि देवोंने परस्परमें देखा तथा एक दूसरेसे 'मैं नलके समान हो गया क्या' ऐसा पूछा तो स्वयं भी उन्हें अपना-अपना रूप नल के समान नहीं मालूम पड़ा तथा स्वेतर देवत्रयने भी "यह रूप वास्तविकमें नलतुल्य नहीं बना' ऐसा कहा। इस प्रकार वे इन्द्रादि देव नलका रूप धारणकर भी खेद है कि नलके समान नहीं हो सके ] // 19 // पूर्णेन्दुमास्यं विदधुः पुनस्ते पुनर्मुखीचरनिद्रमजम् / स्ववक्त्रमादर्शतलेऽथ दर्श दर्श बभजन तथातिमञ्जु // 20 // पूर्णेन्दुमिति / ते देवाः पुनः पूर्णेन्दुं पूर्णचन्द्रमेवास्यं विदधुः मुखं चक्रुः / तथा पुनरनिद्रं विकचमब्जं पद्मं मुखीचक्रः। नलमुखसाम्यलाभाय पुनश्चन्द्रेण पद्मेन च मुखानि निर्ममुरित्यर्थः / अथानन्तरं स्ववक्त्रमादर्शतले दर्पणान्तर्दर्श दशं दृष्ट्वा दृष्ट्वा पुनः पुनदृष्ट्वेत्यर्थः / आभीचण्ये णमुल् द्विवचनं च। तथा नलमुखवदतिमञ्ज अतिसुन्दरं नेति बभञ्जर्भग्नं चक्रुः निनिन्दुरित्यर्थः / अत्र पूर्णन्द्वादिकारणसामान्येऽपि विवक्षितकार्यानुत्पत्तिकथनाद्विशेषोक्किरलङ्कारः / 'तत्सामग्रयामनुत्पत्तिनिगद्यत' इति लक्षणात् // 20 // उन इन्द्रादि देवोंने बार-बार पूर्ण चन्द्रमाको मुख बनाया तथा बार-बार खिले हुए कमलको ( नलके मुखकी समानता पाने के लिये ) मुख बनाया और दर्पणमें बार-बार अपने मुखको देखकर वैसा अर्थात् नलके समान अत्यन्त मनोहर नहीं है ( इस कारण ) उसे बिगाड़ दिया ( या उस बनावटी मुखकी ) निन्दा की। [ नलके मुखको पूर्ण चन्द्रमाके समान मानकर इन्द्रादि देवों ने पहले अपने मुखको पूर्ण चन्द्रमासे बनाया, किन्तु दर्पणमें देखनेसे नलके मुख की सुन्दरता अपने मुखमें नहीं होनेसे 'नलके मुखको विकसित कमलके समान सुन्दर मानकर उस पूर्ण चन्द्रनिर्मित अपने मुखको बिगाड़कर उसके स्थानमें विकसित कमलसे अपना मुख बनाकर फिर दर्पणमें देखनेसे फिर भी नलके मुखकी सुन्दरता अपने मुखमें नहीं आनेसे उसे भी बिगाड़कर फिर उसके स्थानमें पूर्णचन्द्रसे अपने मुखको बनाया। इस प्रकार अनेकबार पूर्ण चन्द्रमा तथा विकसित कमलसे अपने मुखको बना-बनाकर दर्पणमें देखने पर नलके मुखको सुन्दरता अपने मुखमें नहीं आने से उसे बार-बार बिगाड़ा और अपनी रचनाकी निन्दा की। लोकमें भी कोई कारीगर किसी वस्तु के समान बनाते हुए उसे बार-बार देखता और उसके समान नहीं होने पर उसे बिगाड़कर पुनः बनाता है, और फिर भी वैसा नहीं होनेपर निन्दा करता है ! बार-बार पूर्ण चन्द्रमा तथा विकसित कमलसे मुखको बनानेपर भी वे इन्द्रादि देव नलके मुखकी सुन्दरता अपने मुखमें नहीं ला सके ] // 20 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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