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________________ नैषधमहाकाव्यम् / अपराध नहीं, किन्तु अत्यन्त छोटा अपराध है / (मुझ पत्नी होनेपर) यशोंमें सन्तुष्ट करनेसे मुख ( सम्मुख-सामनेमें) लज्जासे वे देव (अथवा-तुम्हारे मुखलज्जासे देव वचनसे भी ( और हृदयसे भी ) यह ( अपराध-विषयक बात ) नहीं कहेंगे। [ मैं किसीके कहनेसुननेसे तुम्हें वरण नहीं करती, किन्तु स्वेच्छासे करती हूँ. और तुम देवोंके दूतरूपमें यहाँ आकर उनके कामकी उपेक्षा करके अपना काम करते, तब देवों के प्रति तुम बड़ा अपराधी होते; किन्तु तुमने ऐसा नहीं किया, बल्कि देवोंके दूतका कार्य अच्छी तरह किया, फिर भी मैं तुम्हारे दूतकार्यसे प्रभावित नहीं होकर यदि स्वयं तुम्हें वरण करती हूँ तो इसमें तुम्हारा कोई बड़ा अपराध नहीं है और इस तुच्छ अपराधको भी वे देव, जब हम दोनों यज्ञोंमें उन देवोंको हविष्यादिसे तृप्त करेंगे तो लज्जा के कारण वे मुखसे भी नहीं कहेंगे और न हृदय में ही रखेंगे अर्थात् परमदयालु वे देवता सन्तुष्ट होकर तुम्हारे इस तुच्छ अपराधको उस प्रकार सर्वथा भूल जायेंगे, जिस प्रकार सामान्य अपराध करनेवाले दास पर उसके उत्तम कार्यसे अत्यन्त सन्तुष्ट स्वामी भूल जाता है; अतः तुम देवोंके अपराधको आशका छोड़कर मुझे स्वीकृत करो] // 153 / / व्रजन्तु ते तेऽपि वरं स्वयंवरं प्रसाद्य तानेव मया वरिष्यसे / न सर्वथा तानपि न स्पृशेड्या न तेऽपि तावन्मदनस्त्वमेव वा // 154 / / व्रजन्विति / अथवा हे नल! ते देवा अपि ते तव सम्बन्धिनं स्वयंवरं वजन्तु वरं साम्वेवैतदित्यर्थः / कुतः, मया तानेव प्रसह्य प्रसन्नान् कृत्वा परिष्यसे / न च ते दुराधर्षा इस्याह-सर्वथा-तान् देवानपि दया न स्पृशेदिति न। किंतु स्पृशे. देवेत्यर्थः / सम्भवस्य निषेधनिवर्तने द्वौ नम्प्रतिषेधौ स्तः। तेऽपि तावन्मदानस्त्वमेव वा न / लोके त्वां मदनं च विना न कोऽपि निष्कृप इति भावः // 154 // वे-वे अर्थात् सब देव भी श्रेष्ठ स्वयंवरमें ( अथवा-स्वयंवरमें भले ही) वें, मैं उन्हें ही प्रसन्न कर तुम्हें वरण करूंगी। क्या उन्हें भी जैसी तुम्हें दया नहीं आती वैसे दया नहीं छुएगी अर्थात् दया नहीं आयेगी ? अर्थात् अवश्य दया आवेगी; क्योंकि वे (देव) भी कामदेव या तुम नहीं हो। [ एक कामदेव ही ऐसा निर्दय है कि मुझे अत्यन्त पीडित कर रहा है, दूसरे तुम ऐसा निर्दय हो कि स्वयं वरण करनेकी इच्छावाली भी मुझे स्वीकृत नहीं करते, किन्तु वे इन्द्रादि देवता तुम दोनों-जैसे निर्दय नहीं है, जो मेरी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर दया न करें जब वे इस स्वयंवरमें आकर मुझपर दया करके तुम्हें वरण करने के लिए मुझे आदेश दे देंगे, तब तो देवोंके प्रति तुम्हारे तुच्छतम अपराधकी भी * आशङ्का नहीं रह जायेगो ] // 154 // इतीयमालेख्यगतेऽपि वीक्षिते त्वयि स्मरवीडसमस्ययाऽनया | पदे पदे मौनमयान्तरीषिणी प्रवर्तिता सारधसारसारणी / / 155 / / इतीति / हे सौम्य ! भालेल्यगते चित्रगतेऽपि त्वयि वीक्षिते सति स्मरबीडयोः
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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