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________________ नवमः सर्गः। समय तुम्हारे में संलग्न चित्तवाली में त्वद्रुप ( नल हो ) हो जाऊँगी और फिर सरलतासे तृणतुल्य कामदेवको जीतकर उससे बदला चुका लूंगी। कामदेव मुझे अत्यन्त पीडित कर रहा है, अत एव ऐसे मरना अच्छा है ] // 147 // श्रुतिः सुराणां गुणगायनी यदि त्वदनिमग्नस्य जनस्य किं ततः / स्त वे रवेरप्सु कृताप्लवैः कृते न मुद्धती जातु भवेत् कुमुदती / / 148 / / ननु श्रतयोऽपि देवानेव गायन्ति किमिति तत्तेषु वेदवेधेषु विगानमत आहश्रुतिरिति / श्रुतिवेदोऽपि सुराणां गुणगायनी गुणस्तोत्र्येव यदि, कर्तरि ल्युट् , टित्त्वात् डीए / स्वदवौ मग्नस्य स्वच्चरणकशरणस्य जनस्य स्वस्येत्यर्थः। ततः किं तैर्देवैः कोऽर्थः इत्यर्थः / तथा हि-अप्सु कृताप्लवैः कृतावगाहैः जनैः रवेरकस्य स्तचे स्तोत्रे कृते सति कुमुदान्यस्यां सन्तीति कुमुदती कुमुदिनी, "कुमुदनडवेतसेभ्यो डमतुप" टिलोपे जीप / जातु कदापि मुदस्यास्तीति मुदती मोदवती विकासवती न भवेत् , कथमपीति शेषः / दृष्टान्तालंकारो लक्षणन्तूक्तम् // 148 // वेद यदि देवोंका गुणगान करते हैं तो तुम्हारे चरणों में लीन उन वेदोक्त गुणगानों या देवों से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं / जलमें स्नान किये हुए (ब्राह्मण आदि) के सूर्यकी स्तुति करनेपर कुमुदती कभी भी नहीं हर्षित होती। [ जो जिसमें मग्न है, उसके गुणगानसे उसे प्रसन्नता होती है, अतः तुममें मग्न में वेदस्तुत देवों को भी नहीं चाहती हूँ | कथासु शिष्ये वरमद्य न ध्रिये ममावगन्तासि न भावमन्यथा / स्वदर्थमुक्तासुतयाशु' नाथ मां प्रतीहि जीवाभ्यधिक ! त्वदेकिकाम् / / कथास्विति / हे नाथ ! कथासु शिष्ये कथामात्रशेषा भवामि मरिष्यामीत्यर्थः / शिष असर्वोपयोग इति धातोर्दैवादिकात् प्राप्तकाले कर्तरि लट् / वरं मनाक् प्रियम् अद्य न धिये न स्थास्ये न जीविष्यामीत्यर्थः। घङ अवस्थाने इति धातोस्तौदादिकात् प्राप्तकाले कर्तरि लट / "रिङशयग्लिङ" इति रिकादेशः। अन्यथा जीवेन परीक्षणे मम भावमाशयं नावगन्तासि नावगमिष्यसि, गमेर्लटि सिप। स्वदर्थे तुभ्यं मुक्तासुतया त्यक्तप्राणतया आशु मां हे जीवाभ्यधिक! अत एव त्वमेवैको मुख्यो यस्यास्तां त्वदेकिका स्वदेकशरणामित्यर्थः। शैषिके कपि कात्पूर्वस्येकारः। प्रतीहि जानीहि // 149 // ___आज (इतनी पीडा देनेवाले दिनों में) भले ही कथाशेष हो जाऊंगी अर्थात् मर जाऊंगी किन्तु रहूँगी ( जीऊँगी ) नहीं; अन्यथा ( मेरे जीवित रहने पर तुम ) मेरे भावको नहीं जानोगे अर्थात् 'दमयन्तो मुझे प्राणपणसे चाहती है' ऐसा नहीं मानोगे। हे नाथ ! ( पाठा०-हे असुनाथ अर्थात् हे प्राणनाथ अथवा- हे सुन्दरनाथ ) ! तुम्हारे लिए प्रार्गोको छोड़नेसे हे प्राणाधिक ! मुझे एकमात्र तुम्हारेमें परायण शीघ्र जानो। [ लोकमें भी कोई व्यक्ति 1. "सुनाथ" इति "तया सुनाथ" इति च पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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