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________________ नैषषमहाकाव्यम् / निजांशुनिर्दग्धमदङ्गभस्मभिर्मुधा विधुर्वाञ्छति लान्छनोन्मृजाम् | त्वदास्यतां यायात तावतापि किं वधूवषेनैव पुनः कलङ्कितः // 146 // निजेति / विधुश्चन्द्रः निजैरंशुभिः निर्दग्धस्य मदङ्गस्य मच्छरीरस्य भस्मभिर्लान्छनोन्मजां स्वकलङ्कपरिमार्जनम्, "षिद्भिदादिभ्योऽ”। मुधा वृथैव वान्छति, नलमुखसान्यार्थमिति शेषः / तथा हि-हे प्रिय ! वधूवधेन मधपातकेनैव पुनः कलङ्कितः सन् तावतापि मदङ्गभस्मनोन्मार्जनेनापि त्वदास्यतां त्वत्तुल्यतामित्यर्थः / यास्यति प्राप्स्यति किम् ? न यास्यत्येवेत्यर्थः / अत्र विधोनलास्यसाम्याय भेम्यङ्ग. भस्मभिः स्वकलङ्कमार्जनाद्वधूवधकलङ्कप्राप्तिकथनादनर्थोत्पत्तिरूपो विषमालङ्कारः॥ __ चन्द्रमा अपने किरणोंसे बिलकुल जलाये गये मेरे शरीरके भस्मोंसे ( अपने ) लान्छन को मार्जित ( भस्मसे रगड़कर कलङ्कको दूर ) करना व्यर्थमें ही चाहता है, क्योंकि स्त्रीवधसे पुनः कलङ्कित ( वह चन्द्रमा) उतनेसे भी तुम्हारे मुखश्रीको प्राप्त करेगा क्या ? अर्थात् कदापि नहीं प्राप्त करेगा। [जिस प्रकार लोकमें कोई व्यक्ति भस्मसे रगड़कर बर्तन आदिके धब्बेको दूर करना चाहता है, उसी प्रकार चन्द्रमा मी मुझे जलाकर उस मेरे शरीर के भस्म से अपना कलङ्क दूरकर तुम्हारे मुखकी शोभाको पाना चाहता है, किन्तु वह मेरे शरीरके भस्मसे अपने कलङ्कको उक्त प्रकारसे दूर कर लेने पर भी स्त्री का वध करनेसे पुनः कलङ्कित हो जायेगा अतः तुम्हारे मुखको शोभाको वह चन्द्रमा कदापि नहीं पा सकता / चन्द्रमा मुझे मरणान्त पीडा दे रहा है ] // 146 // प्रसीद यच्छ स्वशरान् मनोभुवे स हन्तु मां तैधुतकौसुमाशुगः / त्वदेकचित्ताहमसून विमुखती त्वमेव भूत्वा तृणवज्जयामि तम् / / 14 / / प्रसीदेति / हे प्रिय ! प्रसीद स्वशरान्मनोभुवे कालाय यच्छ देहि / “पाघ्रा"दिना दाणों यच्छादेशः / स कामो धुतकौसुमाशुगः त्यक्तकुसुमबाणस्तैस्वच्छरेमा हन्तु हिनस्तु / तस्योपयोगमाह अहं त्वय्येकस्मिंश्चित्तं यस्याः सा सती असून् प्रणान् विमुञ्चती त्यजन्ती, "आच्छीनद्यो म्" इति विकल्पान्नुमभावः / अत एव त्वमेव भूत्वा, 'यं यं वापि स्मरन् भावम्' इत्यादिगीताप्रामाण्यादिति भावः / तं कामं तृणवत्तणतुल्यं जयामि जेष्यामीत्यर्थः / आशंसायां वर्तमानवत्प्रत्ययः // 147 // प्रसन्न होवो, अपने बालों को कामदेवके लिए दों, वह कामदेव अपने ( कोमल ) पुष्पके बाणों को हटाकर उन ( लोहमय तथा अतितीक्ष्ण आपके बाणों ) से मुझे मार डाले / तुम्हारे (ध्यान ) में परायण में प्राणोंको छोडती हुई नल ( नलरूप ) हो होकर उस ( काम ) को तृणके समान ( अतिसरलतासे ) जीत लूगी / [ कामदेव मुझे पुष्पमय वाणों से पीडित कर रहा है, मार नहीं रहा है, अतः यदि तुम लोहमय तथा अतितीक्ष्ण अपने बाण कामदेवको दे दोगे तो वह अपने अल्पसार पुष्पमय बाणोंसे मुझे पीडित करना छोड़कर आपके दिये हुए उन बाणोंसे मझे शीघ्र मार डालनेमें समर्थ होगा और इस प्रकार मरने के
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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