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________________ 542 नैपषमहाकाव्यम् / हुई, पाठा०-सतीबुरिसे बलात्कारसे लौटाती हुई) उस भीमकुमारी दमयन्तीने उस समय ( नलके भात्मस्वरूपको प्रकट कर देनेपर ) उसे (उस दूतको ) नल जानकर अपने मनमें जुगुप्सा और निन्दाको छोड़ दिया / [ यह मन स्वभावतः बुरा है, इस कारण यह जुगुप्सा तथा अनुचित करनेवाला है, ऐसी निन्दा उत्पन्न हुई थी, अथवानलको पानेकी आज्ञा न रहनेसे शरीरमें घृणा और सतीका परपुरुष उसमें भी कामुकों के दूतके साथ सम्भाषण करनेसे निन्दा उत्पन्न हुई थी। दमयन्तीने नलभिन्न देवदूतके प्रति अपने मनके अनुगमन करनेसे उस मनके विषयमें पहले जुगुप्सा तथा अनुचित कर्ता होनेसे निन्दा की, किन्तु नलके निश्चय होनेके बाद 'इस नलमें जो मेरा मन अनुरक्त हुआ' यह उत्तम ही हुआ इस कारण हर्षित हुई ] // 137 // मनोभुवस्ते भावतां मनः पिता निमब्जयन्नेनसि तन्न लज्जसे / अमुद्रि सत्पुत्रकथा त्वयेति सा स्थिता सती मन्मानन्दिनी धिया / / मनोभुव इति / हे मन्मथ ! मनोभुवो मनोजन्यस्य ते भाविनां संसारिणां मनः पिता, तत् पितरं मनः एनसि एवं दुश्चिन्तापापे निमजयन लज्जसे / त्वया एवं पितृद्रोहिणा सत्युत्राणां कथा पितृनकताख्यातिरमुद्रि मुद्रिता निवारिता इत्येवं सा भैमी धियान्तःकरणेन मन्मथनिन्दिनी सती स्थिता / तूष्णीं स्थिता सती कथधित् किश्चिदुवाचेत्यर्थः // 138 // (सती दमयन्ती कामसे कहती है कि-) मनोभू अर्थात् मनसे उत्पन्न होनेवाले तुम्हारा पिता प्राणियोंका मन है, उसे (पितृस्थानीय मनको) पाप (परपुरुषाभिलाषरूप पाप) में डुबाते अर्थात् लगाते हुए तुम लज्जित नहीं होते ? अर्थात् ऐसा अनुचित कार्य करते हुए तुम्हें. लज्जा आनी चाहिए / तुम अर्थात् तुम्हारे-जैसे कुपुत्रोंने सुपुत्रोंकी कथा ( उत्तम पुत्रोंसे पिता पुण्यलोकको प्राप्त करते हैं, ऐसी कथा ) को समाप्तकर किया है / इस प्रकार बुद्धिसे कामदेवकी निन्दा करती हुई पतिव्रता वह दमयन्ती स्थित हुई ( नलके निश्चय हो जानेपर कामदेवकी निन्दा करनेसे विरत हुई,-कुछ बोली ) // 138 // प्रसनमित्येव तदङ्गवणना न सा विशेषात् कतमदित्यभूत् / तदा कदम्ब निरवर्णि रोमभिमुदश्रणा प्रावृषि हर्षमागतः // 139 / / प्रसूनमिति / सा प्रसिद्धा तदङ्गवर्णना भैमीशरीरस्तुतिः प्रसूनं सामान्यतः पुष्पमेवाभूत् , किन्तु तत्प्रसून कतमत् किंजातीयमिति विशेषात् विशेषोल्लेखाचाभूत् / सस्काले मुदश्रुणा प्रावृषि वर्षासु आनन्दवाप्पवर्षे सतीत्यर्थः / हर्ष विकासमागतः प्रावृषेण्यत्वात् कदम्बकुसुमविकासस्येति भावः / लोमभिः लोमव्याजेनेत्यर्थः / कदम्बं कदम्बकुसुममिति निरवर्णि निरैक्षि प्रत्यक्षेणैवालक्षीत्यर्थः / 'निर्वर्णनन्नु निध्यानं दर्शनालोकनेक्षणम्' इत्यमरः / तदा पुलकितं तदङ्गं बालकदम्बकल्पमासी. दित्यर्थः / एतच "स्तम्भप्रलयरोमाश्याः स्वेदो वैवर्ण्यवेपथू। अश्रुवैस्वर्यमित्यष्टौ
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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