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________________ नवमः सर्गः। ( देवों ) के भयसे नहीं, या कामदौर्बल्यके कारण ( अथवा-काम दौर्बल्यके भय ) से नहीं; यदि मेरे प्राणों के व्यय ( मरने ) से भी तुम्हारा हित हो तो ( वह मेरा मरण ) तुम्हारे प्रेममें शुद्धि पाने ( अनृण होने ) लिए होवे / [ मैंने पूर्ववचन किसी पक्षपातसे, देवोंके भयसे या अपनेमें कामकी शिथिलता होनेसे नहीं कहा है किन्तु तटस्थतासे ही कहा है कि 'देवों तथा मुझमें से किसी एकको वरण करो'। हां, तुम यह भी मत चिन्ता करो कि यदि मैं इनको ( नलको') नहीं वरण करूंगा तो मर जायेंगे, क्योंकि यदि मेरे मरनेसे तुम्हारा हित हो तो उस लिये मैं सहर्ष तैयार हूँ। अर्थात् मैं अपने प्राणोंसे तुम्हारा हित चाहता हूँ, क्योंकि ऐसा करनेसे मैं तुम्हारे प्रेमका ऋणी नहीं रहूंगा ] // 135 / / 'इतीरितैनषधस॒नृतामृतविदर्भजन्मा भृशमुल्ललास सा / तोरधिश्रीः शिशिरानुजन्मनः पिकस्वरैदूरविकस्वरैर्यथा // 136 / / इतीति / इतीथमीरितैरभिहितेनैषधस्य नलस्य सूनृतैः सत्यप्रियवाक्यैरेवामृतैः सा विदर्भजन्मा वैदर्भी शिशिरमनु जन्म यस्य तस्य शिशिरानुजन्मनः शिशिरा. नन्तरभाविनः ऋतोर्वसन्तरिधिका श्रीर्दूरविकस्वरैरतिश्लाध्यैः पिकस्वरैर्यथा कोकिलकूजितैरिव भृशमुल्ललास जहर्ष / अत्र सूनृतानामुपमानभूतकोकिलालापवत्तादा. त्मिकत्वेनातिश्राव्यस्वद्योतनाथ वसन्तस्य शिशिरानुजन्मत्वेन व्यपदेशः // 136 // ____ इस प्रकार ( श्लो० 131-135 ) कहे गये पाठा०-ऐसे इन नलके सत्य तथा अमृत. वत् प्रिय वचनोंसे वह विदर्भकुमारी दूर तक पहुँचनेवाले कोयलके स्वरोंसे वन्सतऋतुकी अधिक शोभाके समान अत्यन्त हर्षित हुई / [ नलका मुझमें अनुराग है, देवोंसे यह डरते नहीं, ये नल ही है, इत्यादि कसे ?"नी हर्षित हुई पिकस्वर के साथ नल वचनकी तथा वसन्तश्रीके साथ दमयन्तीकी उपमा देनेसे नलके वचनका पिकस्वर के समान मदनोहीपक एवं मधुर होना और दमयन्तीका वसन्त ऋतुकी विशिष्ट शोमाके समान प्रिय होना ध्वनित होता ] // 136 // नलं तदावेत्य तमाशये निजे घृणां विगानञ्च मुमोच भीमजा। जुगुप्समाना हि मनो दूतं तदा सतीधिया देवतदूतधावि सा / / 17 / / ___ नलमिति / तदा नलस्य स्वरूपगोपनकाले देवतदूते धावति प्रवर्तत इति देवतदूतधावि यथा तथा द्रुतं मनः सतीधिया पतिव्रतात्वाभिमाननेन हेतुना जुगुप्समाना बीभत्समाना भीमजा तदा नलस्य स्वरूपकथनकाले तं दूतं नलमवेत्य बुद्ध्वा निजे आशये घृणां परपुरुष इति जुगुप्सां विगानमात्मनिन्दां च मुमोच // 137 // ___ उस समय ( नलके अपने स्वरूपको छिपाने के समय ) देव-समूहके दूतकी तरफ दौड़नेवाले अर्थात् 'यह देवोंका दूत है' ऐसा समझनेवाले मनको सती बुद्धिसे जुगुप्सित करती हुई ( 'सती मैं देवदूत इस पुरुषसे सम्भाषण कैसे करू' इस प्रकार जुगुप्सित करती 1. "इतीहशैः" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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