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________________ नवमः सर्गः। होनेसे अतिशय कोमल वरुणको वरण करना चाहती हो तो यह चाहना उत्तम है। [ मृदु प्रकृति होने के कारण तुम भी अन्य इन्द्र, अग्नि, यमको छोड़कर अतिशय कोमल प्रकृति वरुण को वरण करो] // 58 // असेवि यस्त्यक्तदिवा दिवानिशं श्रियः प्रियेणानणुरामणीयकः। सहामुना तत्र पयःपयोनिधौ कृशोदरि ! क्रीड यथामनोरथम् // 56|| असेवीति / हे कृशोदरि ! अनणु महद्रामणीयकं रमणीयत्वं यस्य सोऽतिरमणीयो यः पयःपयोनिधिः त्यक्ता द्यौः येन तेन श्रियः प्रियेण लचमीपतिना दिवा च निशा च दिवानिशमहोरात्रयोरित्यर्थः / द्वन्द्वैकवद्भावे अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। असेवि सेवितः। तत्र पयःपयोनिधौ क्षीराब्धौ अमुना वरुणेन सह यथामनोरथं यथेच्छ क्रीड, लक्ष्मीनारायणवदिति भावः // 59 // ___ लक्ष्मांके पति ( विष्णु ) ने स्वर्गको छोड़कर रात-दिन अतिशय सौन्दर्यवाले जिसका आश्रय किया है, हे कृशोदार ? उस क्षीरसमुद्र ( या समुद्र ) में इस ( वरुण ) के साथ इच्छानुसार क्रीडा करो। [ स्वर्गको भी छोड़कर विष्णु भगवान् रात-दिन पयोनिधिमें रहते है, अतः ज्ञात होता है कि वह स्वर्गसे भी अधिक सुन्दर है, और वह पयोनिधि इस वरुणको स्वीकार करनेसे इच्छापूर्वक क्रीडा करने के लिए तुम्हें प्राप्त हो रहा है, अतएव तुम वरुणको स्वीकारकर पयोनिधि विष्णुके समान क्रीडा करो ] / / 59 // इति स्फुटं तद्वचसस्तयादरात् सुरम्पृहारोपविडम्बनादपि / करासुप्तककपोलकर्णया अतच तद्भाषितमश्रुतच तत् // 60 // इतीति / इतीत्थं स्फुटं स्फुटार्थ तत्पूर्वोकं तद्भाषितं नलवाक्यं तद्वचसो नल. वचसः आदरात् सम्बन्धसामान्ये षष्ठी। तद्वचनस्यानुरागाच्चेत्यर्थः / सुरेब्विन्द्रादिषु स्पृहाया अभिलापस्यारोप एव विडम्बनं परिहासः तस्मादपि करणात् कराके करोस्सने सुतं विश्रान्तमेकं कपोलकर्ण द्वन्द्वादौ श्रुतस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धादेककपोल एककर्णश्च यस्यास्तयेत्यर्थः / तया दमयन्त्या श्रुतमश्रुता सुरस्पृहारोपरोषात् करतलेनकं कर्ण पिधाय नलादरादेकेन श्रुतं नतु द्वाभ्यामित्यर्थः। एककपोलरोधस्तु चिन्तावशादिति मन्तव्यम् / अत्रादरविडम्बनयोः श्रुताश्रुताभ्यां हेतुहेतुमद्भावेन यथासङ्ख्यसम्बन्धात् यथासङ्ख्यालङ्कारः // 60 // इस प्रकार ( श्लो० 38-59 ) स्पष्ट नलके वचनको एक हाथ पर कपोल तथा कानको रखी हुई उस (दमयन्ती) ने उस (नलाकृति दूत) के वचनको आदरसे तथा देवों में स्पृहाके आरोपकी विडम्बनासे क्रमशः सुना भी और नहीं भी सुना / [ दमयन्ती नलाकृतिको दूतमें देखकर उनके वचनको सुनने में उत्सुक थी और यहदूत इन्द्रादि देवों में स्पृहा रखनेवाली निःसार बातें कह रहा है जिनको कि पतिव्रताधर्मके विपरीत होनेसे नहीं सुनना चाहती थी, इस प्रकार हाथके ऊपर कपोल तथा कान रखे हुए दमयन्तीने नलाकृति सुन्दर होनेके आदरसे
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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