SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 569
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 500 नैषधमहाकाव्यम् / अजातविच्छेदलवैः स्मरोत्मवैरगस्त्यभासा दिशि निर्मलविष / धुतावधि कालममृत्यहिता निमेषवत्तेन नयस्व केलिभिः / / 57 // अजातेति / हे भैमि ! अगस्त्यभासा निर्मलस्विषि दिशि दक्षिणस्यां दिशीत्यर्थः / तेन धर्मराजेन सह / “वृद्धो यूने"ति ज्ञापकात् सहाप्रयोगेऽपि सहार्थे तृतीया। अविद्यमानं मृत्युशङ्कितं मरणशङ्का यस्याः सा सती अन्तकस्यैवात्मदासस्वादिति भावः / अजातो विच्छेदलवो विघ्नलेशो येषु तैः स्मरोत्सवैः सम्भोगैरेव केलिभिर्विनोदैः धुतोऽवधिरन्तो यस्य तमनन्तकालं निमेषवत् निमेषतुल्यं नयस्व यापय / वरान्तरस्वीकारे दुर्लभमिदं सौभाग्यमिति भावः // 57 // अगस्त्य ( अगस्त्य मुनि या अगस्त्य नक्षत्र ) के प्रकाशसे निर्मल कान्तिवाली दिशा ( दक्षिण दिशा ) में उस ( यम ) के साथ ( यमके ही अपना पति होनेसे ) मृत्युकी शङ्कासे रहित होकर लेशमात्र भी भङ्ग नहीं होने वाली कामके उत्सस्वरूप (पाठा०-कायसे उत्पन्न) क्रीडाओंसे निरवधि अर्थात् अनन्त समयको निभेपके समान व्यतीत करो। [ अगस्त्य नुनि प्रसन्न होकर यम की दक्षिण दिशाको निर्मल करते हैं, उस दिशामें, और लोगोंके मारनेवाले होनेपर भा पति होनेसे अपने मरनेकी शङ्का छोड़कर निरन्तर होनेवाली कामक्रीडासे अनन्त समयको निमेषमात्र समयके समान ( सुख का बहुत अधिक समय भी अत्यन्त थोड़ा ज्ञात होता है अतः अधिक आनन्ददायक होने से अनन्त समय भा तुम्हें निर्भपके बराबर मालूम पड़ेगा ) व्यतीत करो। तुम धर्मराजको वरण कर अनन्त समय तक उनके साथ कामक्रीडा करो] // 57 // शिरीषमृद्वी वरुणं किमीहसे पयःप्रकृत्या मृदुबर्गवासवम् / / विहाय सर्वान् वृणुते स्म किन्न सा निशापि शीतांशुमनेन हेतुना / / 8 / / शिरीषेति / अथवा शिरीषमृद्धी त्वं पयःप्रकृत्या जलस्वभावेन वरुणशरीरस्य तथावात् कारणगुणवशेनेत्यर्थः। मृदुवर्गे वासवमिन्द्रं श्रेष्टं वरुणमीहसे किमिच्छसि वा? तदपि योग्यमेवेति शेषः। तथा हि-सा मृदुस्वभावा निशापि अनेनैव मृदुस्वभावस्वेन हेतुना कारणेन / “सर्वनाम्नस्ततृतीया च" इति तृतीया / सवाँस्तीचगान् सूर्यादीन् विहाय शीतांशु न वृणुते स्म किम् ? वृणुत एव / दृष्टान्तालकारः // 58 // शिरीष ( के फूल ) के समान कोमल तुम जल-प्रकृतिके होनेसे कोमल पदार्थों के इन्द्र अर्थात् सबसे अधिक कोमल वरुणको चाहती हो क्या ? वह (विख्यात रात्रि भी इसी कारण सबोंको छोड़कर ( कठिन पदार्थों या सूर्य आदि कठिन ग्रहों ) को छोड़कर ठण्डे किरणों वाले चन्द्रमा को नहीं वरण करती है क्या ? अर्थात् अवश्य वरण करती है / [जिस प्रकार कोमल स्वभाववाली रात्रि अन्य ग्रह या कठिन पदार्थों को छोड़ कर कोमल चन्द्रमा को वरण करती है, उसी प्रकार शिरीषके पुष्पोंके समान कोमलाङ्गी तुम जलस्वभाव 1. "स्मरोद्भवैः” इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy