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________________ नवमः सर्गः। 457 करना मात्र है, अतएव वे इन्द्रादि देव उस नलको ही तिरूपमें शिक्षा देकर कृपाको चरितार्थ करें ] // 34 // अपि द्रढीयः शृणु मे प्रतिश्रुतं स पीडयेत् पाणिमिमं न चेन्नृपः। हुताशनोद्वन्धनवारिवारितां निजायुषस्तत्करबै स्ववैरिताम् // 15 // अपीति / हे धीर ! द्रढीयः दृढतरं मम प्रतिश्रुतं प्रतिज्ञामपि शृणु। तामेव प्रतिज्ञामाह-स नृपः नलः इमं मदीयं पाणिं न पीडयेत् न गृहीयाचेत्तर्हि निजस्यायुषः स्वेनाश्मना वैरितां शात्र हुताशन उन्धनवारि चतैःवारितां निवृति करवे करवाणि // 25 // __ और, (तुम) मेरी अत्यन्त दृढ़ प्रतिशाको सुनो; यदि वे राजा ( पक्षा०--मानवरक्षकअतएव वे नल मानवके नाते मेरी रक्षा अवश्य करेंगे यह ध्वनिता होता है ) इस हाथको पीडित नहीं किये अर्थात् मेरे विवाह नहीं किये तो मैं अपनी आयुके अपने शत्रुभावको अग्नि, उद्वन्धन ( डाल आदि ऊँचे स्थानों में बांधना ), या पानी निवृत्तकर लूगी अर्थात् अग्निमें जलकर, डाल अदिमें अपनेको बांधकर या पानीमें डवकर वैरी अपनी आयुको नष्टकर दूंगी अर्थात् मर जाऊंगी / [ 'यदि मेरे दुर्भाग्यवश या इन्द्रादिके अनुरोध वा बलप्रयोगके कारण यदि नल मुझसे विवाह नहीं करेंगे तो मैं अग्नि आदि के द्वारा आत्मइत्या कर लूगी, किन्तु दूसरे किसीका वरण नहीं करूंगी' यह मेरी दृढ़ प्रतिक्षा सुन लो और इतना सुनने पर भी आप पुनः कहेंगे तो वह अनुचित ही नहीं, अपि तु असफल भी होगा ] // 35 // निषिद्धमप्याचरणीयमापदि क्रिया सती नावति यत्र सर्वथा। धनाम्बुना राजपथेऽतिपिच्छिले कचिद्बुधैरप्यपथेन गम्यते / / 36 // न चात्मनो ब्यापादनमयुक्तमित्यत्राह-निषिद्धमिति / यत्रापदि यदि सती धा क्रिया सर्वथा सर्वप्रकारेण नावति न रखति / तत्र निषिद्धमप्याचरणीयम्। तथा हि राजपथे राजवाध्यामपि धनाम्बुना सान्द्रोदकेन मेघ्रजलेनातिपिच्छिले पतिले सति बुधैः विद्वनिः अपथेनामार्गेणापि चित्प्रदेशे गम्यते / “पथो विभाषा" इति समासान्तः / "अपथं नपुंसकम् / " सर्वथा बीणां प्राणत्यागेनापि पातिव्रत्यं रक्षणीयमिति भावः। दृष्टान्तालङ्कारः॥३६ // आपत्तिमें निषिद्ध ( कार्य ) भी करना चाहिये, जहां ( जिस आपत्तिमें या जिस स्थान वा समयमें) श्रेष्ठ कार्य सर्वथा नहीं बचा सकता हो / अधिक जलसे राजमार्ग ( सड़क या प्रशस्त रास्ते ) के पङ्कयुक्त होनेपर विद्वान् (विवेकशील व्यक्ति ) भी कहींपर मार्गको छोड़कर चलते हैं / आत्महत्या करना शास्त्रविरुद्ध होनेपर भी आपत्तिसे छुटकारा न हो पकनेको अवस्थामें वह आत्महत्या करना भी शास्त्र विरुद्ध नहीं होता है, अतएव नलकी 31 नै०
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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