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________________ नैषधमहाकाव्यम् / तस्मिन् नळ उदाहतेऽनुतर्ष शृणोतीति रागातिरेकोतिः। 'उपसर्गात सुनोती त्यादिना मण्यवायेऽपि वयम् // 36 // _ 'मरे हुए (अत एव ) निमेष-हीन नेत्रवाले कामदेव से मैं बरती हूँ, इस कारण दूसरा सदाहरण दो' ऐसा कहकर उस दमयन्ती ने तरुणको प्रशंसा करते हुए (सखी, याबन्दी ) लोगों के द्वारा कामदेव के स्थानपर नकको अभिषित कराया। [कामदेव देवता होनेसे निमेषहीन है, उसे यहाँ मरा हुमा कहकर निमेष-दोन होने तथा उससे डरनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है, क्योंकि मरे हुए व्यक्तिका नेत्र मी निमेष-हीन हो जाता है तथा उससे लोग करते मी है। अथ च-जब कोई राजा भादि विशिष्ट व्यक्ति मर जाता है, तब उसके स्थानपर नये विशिष्ट व्यक्तिका अभिषेक कर स्थापित किया जाता है, यहाँ मृत कामदेवके स्थानपर नलको मिषिक्त कर स्थापित किया गया है। किसी तरणकी प्रशंसा करते हुए लोग अब सुन्दरतामें उसके साथ कामदेवकी उपमा देते थे, तब वह दमयन्ती उक्त प्रकारसे डरनेकी बात कहती थी और वे लोग कामदेवके समान दूसरे किसीके नहीं होनेसे उस युवकके साथ नमकी उपमा देते थे] // 36 // नलस्य पृष्टा निषधागता गुणान् मिषेण दूतद्विजवन्दिचारणाः / निपीय तत्कीतिकथा'मथानया चिराय तस्थे विमनायमानया // 30 // नलस्यति / निषधेभ्य भागता दूताः सन्देशहराः, हिना प्राह्मणाः, वन्दिनः स्तावकाः चारणा देशभ्रमणजीविनः ते सर्वे मिषेण म्याजेन नलस्य गुणान् पृष्टाः पृच्छतेदुंहादिस्वाद प्रधाने कर्मणि क्तः। अथ प्रश्नानन्तरमनया भैम्या तरकीर्तिकथां नलस्य यशकथामृतं निपीय नितरां भ्रस्वेत्यर्थः। चिराय धिमनायमानया विमनीभवस्या भृशादिस्वारस्यङि सलोपश्च 'मकरसार्वधातुकयोः ' ततो लट: शानजादेशः। तदा तस्थे स्थितं तिते वे लिट / अयन दूतादिग्यवधाने गुणकीर्सनलक्षणः प्रलापाग्यो रत्यनुभवः // 37 // निषध देशसे भाये हुए दूतों, ब्राह्मणों, वन्दियों तथा चारणोंसे वह दमयन्ती ( उस देशका राजा कौन है ? प्रनापालन कैसा करता है ? उसमें कौन-कौन गुण है ? इत्यादि) बहानेसे नसके गुणों को पूछती थी (इसके बाद उनसे वर्णित ) नसकी कीर्ति-कथा ( पाठा कीर्ति-अमृत ) को अच्छीतरह पानकर अर्थात् सुनकर ( ऐसे अत्यधिक सदगुणोंसे युक्त रामा नलको मैं किस प्रकार प्राप्तकर सकूगी ? इस भावनासे ) चिरकालतक उदासीन रहती थी [ अथवा-(ऐसे अत्यधिक सद्गुणसम्पन्न राजा नलके प्रति मेरा अनुराग हुमा है, अत एव उन्हें पाकर मैं कृतकृत्य हो जाऊँगी, इस भावनासे ) चिरकालतक आनन्दित होती थी / इस अर्थमें 'तस्थे+ अविमनयमानया, पदच्छेद करना चाहिये ] // 37 / / प्रियं प्रियां च त्रिजगज्जयिश्रियो लिखाधिलीलागृहभित कावपि / 1. '-सुधा-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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