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________________ 470 नैषधमहाकाव्यम् / स्वमित्यत्र ईशिता दृष्टा प्रकाशितार्थेति यावत् ईडशी भवतः सरस्वती कचित् प्रकाशोदकां कचिदस्फुटाणसमप्रकाशोदकां सरस्वतीं वाचं सरस्वती नदीं च। 'सरस्वती नदीभेदे गोवाग्देवतयोगिरि। स्त्रीरत्ने चापगायाश्च' इति विधः / जेतुं मनो यस्याः सा जेतुमनाः। "तुं काममनसोरपि" इति मकारलोपः। अत्र नलवाचः सरस्वतीनदीधर्मसम्बन्धात्तजिगीषोत्प्रेक्षा व्यक्षकाप्रयोगाद्म्या। तया चोपमा व्यज्यत इत्यलङ्कारेणालङ्कारध्वनिः॥४॥ मेरे प्रश्न ( आपके कुल तथा नामको पूछने ) के विषय में कहीं पर (कुल-नाम नहीं बतलानेसे ) नहीं दिखलायी देती हुई तथा कहीं.पर ('कहांसे यहांपर आये हैं। इस प्रश्नका 'दिक्पालोंकी सभासे आये हुए मुझे अपना ही अतिथि समझो ( 8155) ऐसा उत्तर देनेसे ) दिखलायी देती हुई आपकी वाणी कहीं पर (बाहर जलप्रवाह होनेसे ) दिखलायी देती हुई तथा कहींपर ( भीतर जल-प्रवाह होनेसे ) नहीं दिखलायी देती हुई सरस्वती नदीको जीतना चाहती है। जिस प्रकार सरस्वती नदीका जलप्रवाह कहीं पर दिखलायी देता है और कहीं पर नहीं दिखलाई देता, उसी प्रकार आपने कुल तथा नामको तो नहीं बतलाया और कहांसे आये हैं ? इस प्रश्नका उत्तर ( 8155) बतलाया; अतएव अप्रासङ्गिक बातको छोड़कर अपना कुल तथा नाम बतलाइये ] // 4 // गिरः श्रुता एव तव श्रवःसुधाः श्लथा भवनाम्नि तु न अतिस्पृहा / पिपासुता शान्तिमुपैति वारिणा न जात् दुग्धान्मधुनोऽधिकादपि / / गिर इति / श्रवः सुधाः कर्णामृतानि तव गिरः श्रुता एव, किन्तु भवसाग्नि विषये श्रुतिस्पृहा श्रवणेच्छा न श्लथा न निवृत्ता। न च सुरसन्देशश्रवणादेव तनिवृत्तिरित्याह-तथा हि पिपासुता पिपासेत्यर्थः / वारिणा वारिपानेनैव शान्तिमुपैति अधिकादनल्पादपि दुग्धात् क्षीरात् मधुनः क्षौद्राद्वा, जातु कदापि न शाम्यति, तद्वदनापीति / दृष्टान्तालङ्कारः // 5 // कानोंकों ( सन्तृप्त करनेसे ) अमृत आपके वचन ( मैंने ) सुने, (किन्तु) आपके नामके विषयमें कानोंकी अभिलाषा अर्थात् 'आपका नाम क्या है ? ऐसी इच्छा शिथिल नहीं हुई / इतना अधिक आपके मधुर वचन सुननेपर भी मैं आपका नाम सुनना चाहती हूं; क्योंकि प्यास पानीसे ही शान्त होती है, अधिक दूध या शहदसे कभी नहीं / [जिस कारण अधिक भी दूध या मधुसे प्यास नहीं शान्त होती, किन्तु पानीसे ही शान्त होती है, उसी प्रकार आपके नाम सुननेकी मेरी इच्छा दूसरी बातोंसे नहीं शान्त होतो; अतएव कृपाकर अपना नाम बतलाइये / यहाँपर प्यासका दृष्टान्त देनेसे यह सूचित होता हैं कि प्यासे व्यक्ति को जल पिलानेसे ही पुण्य होता है, अधिकसे अधिक दूध या शहद देने या पिलानेसे नहीं, उसी प्रकार अपना नाम बतलानेसे मेरी तद्विषयिणी इच्छाकी निवृत्ति करके आप पुण्य लाभ कीजिये, दूसरी बातें कहनेसे कुछ लाभ नहीं है, प्याऊ लगाकर प्यासे व्यक्तियोंकी प्यासको पानी द्वारा शान्त करनेसे पुण्यलाभ होनेकी बात सर्वविदित है ] // 5 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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