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________________ नवमः सर्गः। 469 विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती) उस नलके द्वारा कही गयी दिक्पालों के सन्देर्शोसे मरी हुई उस वाणीको अनसुनीकर भूतलचन्द्र उस नलसे बोली-[ दिक्पालोंके सन्देशमें आस्था नहीं रहनेसे दमयन्तीका उसे अनसुनी करना ठीक ही है / जब दूरतम आकाशका चन्द्रमा भी भुतलस्थ लोगोंका आह्लादक होता है, तब भूतलस्य चन्द्रमा नलके अत्यन्त समीप होनेसे भूतलवासियोंके लिये आह्लादित होना आश्चर्य नहीं है ] // 2 // मयाङ्ग ! पृष्टः कुलनामनी भवानमू विमुच्यैव किमन्यदुक्तवान् / न मह्यमत्रोत्तरधारयस्य किं ह्रियेऽपि सेयं भवतोऽधमर्णता // 3 // मयेति / हे अङ्ग! भोः श्रीमन् ! मया भवान् कुलनामनी पृष्टः सन् पृच्छतेदहादिस्वादप्रधाने कर्मणि क्तः, 'अप्रधाने दुहादीना'मिति वचनात् / किं किमर्थमम कुलनामनी विमुच्य अन्यदुक्तवान् किमप्यसङ्गन्तमिव प्रलपसीति भावः। तदकथने को दोषस्तत्राह-नेति / अत्र कुलनामप्रश्ने मह्यमुत्तमर्णायै इति शेषः / "धारेरुत्त. मर्ण" इति सम्प्रदानस्वाचतुर्थी / धारयतीति धारयः "अनुपसर्गालिम्पबिन्दधारि". इत्यादिना शप्रत्ययः / उत्तरस्य धारयः तस्य भवतः तव सेयमधमः ऋणेन अधमणः। मयूरव्यंसकादित्वात् तत्पुरुषः। तस्य भावस्तत्ता सा हियेऽपि न किम् ? लोके उत्तमणेन याच्यमानस्याधर्मस्य तदप्रदानं लज्जायै भवस्येव, भवतस्तु सापि नास्तीति भावः // 3 // हे अङ्ग ! (मात्मीय बन्धो ! ) मुझसे कुल तथा नाम पूछे गये आप उन (कुल तथा नाम ) को छोड़कर (इन्द्रादिके संदेशरूप अप्रासङ्गिकवात ) दूसरा कुछ क्यों कहे ? ( ऐसा कहना आपको उचित नहीं था। इस ( उत्तर देनेके विषय ) में मेरे उत्तररूपी ऋणको धारण किये हुए आपका यह ऋणित्व अर्थात् ऋण धारण करनेका भाव क्या लज्जा के लिए नहीं है अर्थात् लज्जाके लिए हैं ही। [किसीसे ऋण लेकर मांगनेपर भी उसे नहीं चुकाना साधारण व्यक्तिके लिए भी लज्जाकी बात होती है तो आप-जैसे सत्पुरुषके लिये तो ऐसा करना बहुत ही लज्जाकी बात है। क्योंकि मैंने आपसे आपका कुल तथा नाम पूछा है, अतः आप उनका उत्तर जबतक नहीं देते हैं तबतक एक प्रकारसे उत्तर देने के लिये मेरे ऋणी हैं और अपना कुल तथा नाम बतलाकर ही ऋणमुक्त हो सकते हैं, किन्तु आपने अपना कुल तथा नाम न कहकर जो दिक्पालोंका सन्देश-बहुल अप्रासङ्गिक बातें कहीं, उससे आपको लज्जा आनी चाहिये, कोई भी भला आदमी किसी भी भले आदमीसे उचित प्रश्नका उत्तर न देकर ऐसी-वेसिर-पैरकी बातें नहीं कहता, अतः आपने यह उचित नहीं कि हैं] // 3 // अरश्यमाना कचिदीक्षिता क्वाचन्ममानुयोगे भवतः सरस्वती। क्वचित्प्रकाशां क्वचिदस्फुटार्णसं सरस्वती जेतुमना: सरस्वतीम् / / 4. अदृश्यमानेति / ममानुयोगे प्रश्ने विप / 'प्रश्नोऽनुयोगः पृच्छा च' इत्यमरः। कचित् कुलनामविषये अरश्यमाना अप्रकाशितेत्यर्थः। कचित् कुत आ. कस्य
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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