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________________ अष्टमः सर्गः। 463 शकलः किमु ? 'स्यात्खण्डः शकले चेविकारमणिदोषयोः' इति विश्वः। तथा शर्करा सिताख्यंशर्करा तस्या गिरः पन्थास्तत्पथः तस्मिन् मागें शर्करा शिलाशकलप्रचुरमृदेव किम् ? 'शर्करा खण्डविकृतावुपला कर्परांशयोः' इत्युभयत्रापि विश्वः / दिनु प्रथितं प्रख्यातमिचरिच्वाख्यं तत् तृणं तव गिरः स्वद्विरः भङ्गी भगवान् तरङ्गितो रसः शृङ्गारादिरुदकं च तदुत्थं कच्छे अनूपे तृणं नु ? उत्सेति पाठे रसोत्सो रसप्रवाहः तस्य कच्छतृणं किमित्यर्थः / 'जलप्रायमनूपं स्यात् पुंसि कच्छस्तथाविधः' इत्यमरः / सर्वत्रान्यथा कथं खण्डादीनामीङमाधुर्यमिति भावः। किंवादयस्तूत्प्रेक्षायामत्रोत्प्रेक्षात्रयस्य संसृष्टत्वात्सजातीयसंसृष्टिः। अत्र द्रव्ये वैशेषिककार:-"मत्स्य. न्दिकाः खण्डसिताः क्रमेण गुणवत्तमाः / यथा यथा हि नेमल्यं मधुरत्वं तथा तथा // धौतत्वाधिर्मलत्वाच तथा सिततमक्रमात् / वालुकेव भृशं सूक्ष्मा सुस्निग्धा सित. पिंगला // मत्स्याण्डाकृति सादृश्ययोगान्मत्स्यन्दिका स्मृता / स्फटिकोपलखण्डाभः खण्डस्तच्छर्करा समा // शर्करा निर्मला सैव सिता तु सितशर्करा / निर्मलेव सिता सा तु राजराज इतीरिता" // इति // 101 // हे कृशाङ्गि ! तुम्हारी वाणी का खण्ड ( लेशमात्र ) खण्ड (खांड़ ) है क्या ?, उस ( तुम्हारी वाणी ) के मार्गकी शर्करा ( छोटे छोटे कङ्कड़) शर्करा ( शक्कर अर्थात् चीनी) है क्या ? और उस ( तुम्हारी वाणी ) की मङ्गी (व्यङ्गयादि पूर्ण रचना ) के रस ( शृङ्गारादि रस, पक्षा०-जल ) के किनारेमें उत्पन्न जो तृण है, वह दिशाओमें ( चारों तरफ अर्थात् सर्वत्र ) इक्षु अर्थात् गन्ना कहलाया क्या ? / तुम्हारी वाणीके खण्ड होनेसे ही वह खण्ड (खांड ) कहलाया और उसमें माधुर्य हुआ, तुम्हारी वाणीके रास्तेमें शर्करा छोटे-छोटे ( कङ्कड़ ) रूप होनेसे ही वह शर्करा ( शक्कर ) कहलाया और उसी सम्बन्धसे उसमें माधुर्य आया तथा तुम्हारी वाणीके शृङ्गारादिरसपूर्ण ( या जलपूर्ण ) तट प्रान्तज तृणही सर्वत्र क्षु (गन्ना ) कहलाया और उसमें भी उसी वाणीके सम्बन्धसे मधुरता आयी / तुम्हारी वाणीकी अपेक्षा खांड़, शक्कर तथा गन्नेके अत्यन्त तुच्छ होनेसे वे उस बाणीके खण्ड, मार्गके कङ्कड़ तथा तटोत्पन्न तुच्छ तृण रूप हैं, एवं तुम्हारी उस वाणीके सम्बन्धसे ही उनमें भी मधुरता आ गयी है / तुम्हारी वाणी खांड़, शकर तथा गन्नेसे भी अत्यधिक मधुर है ] // 101 / / ददाम कि ते सुधयाधरेण त्वदास्य एव स्वयमास्यते यतः / विधुं विजित्य स्वयमेव भावि त्वदाननं तन्मखभागभोजि // 102 / / किञ्च नेष्टदानेन त्वदाराधने शक्ता वयं किन्तु स्वत्करुणैकशरणा इत्याशयेनाहददामेति / ते तुभ्यं किं ददाम कि वितराम दातव्यं किमपि नास्तीत्यर्थ। अमृतमस्तीति चेत् तवैवास्तीत्याह / कुतः यतो प्रस्मात् कारणात् सुधया अधरेणाधररूपेण त्वदास्य एव स्वयं साक्षादास्यते स्थीयते, भावे लट् / यज्ञभागोऽस्तीति चेत् 1. "हिसा" इति पाठान्तरम्। 2. "चन्द्रं" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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