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________________ 462 नैषधमहाकाव्यम् / नदीहस्वो न स्यात् / ननु उडन्त इत्युक्तं कथमूकारादिति चेत् , सत्यम्, अप्राणि. जातेश्चारज्ज्वादीनामित्यत्र "अलाबूः कर्कन्धूः" इति भाष्यकारेणोदाहरणादूकारादः प्यूङस्त्येवेति ज्ञायते / अत एव वामनः-"ऊकारादप्यूप्रवृत्ते"रिति / तदेतत् सम्यग्विवेचितमस्माभिः कुमारसम्भवसञ्जीविन्यां, "विमानना सुभ्र ! कुतः पितृहे' इत्यत्र / तस्याः सम्बुद्धिः एकवंशप्रभवश्रु ! वयं कलाः स्वर्णखण्डान् द्यन्ति खण्डय. न्तीति कलादाः स्वर्णकारा इव / 'कलादा रुक्मकारकाः' इत्यमरः / तव गौरिग्णा सह स्पर्धत इति तत्स्पर्धि अत एव प्रबलविरोधितया दुर्विदग्धमविदग्धं बुद्धिशून्यं च बभ्रु पिङ्गलम् / 'बभ्रु स्यात् पिङ्गले त्रिषु' इत्यमरः / हेम सुवर्णे दहेम / त्वदङ्गस्पर्धापराधादविशुद्धेश्चास्माकं दाह्यस्वर्णसमपंणात् सर्वानवद्यासमर्पणमेव सन्तर्पण. मिति भावः // 99 // ___ हे कामदेवके चापके साथ एक वश ( कुल, पक्षा-बांस ) में उत्पन्न सुन्दर भौंहोंवाली ! सुवर्णकार ( सुनार ) के समान हमलोग तुम्हारे ( शरीरकी ) गौरताके साथ स्पर्धा करनेवाले ( अतएव अर्थात् बड़ेकी समानता करनेसे ही ) दुविनीत पिङ्गल वर्णवाले सुवर्गको जलाते हैं / [ तुम्हारे शरीरकी शोभासे कम शोभावाले सुवर्ण शरीरको गौरताके साथ स्पर्धा करनेके कारण अग्निमें जलते हैं, हमलोग तुम्हारे हैं, अतएव तुम्हारे शरीरके प्रतिस्पर्धीको अग्निमें डालकर दण्डित करते हैं / अतएव हमलोगोंको सामान्य सुवर्णकी आवश्यकता नहीं हैं, अपितु स्वर्णाधिक सुन्दर अपना शरीर देकर हमलोगोंको कृतार्थ करो] // 19 // सुधासरःसु त्वदनङ्गतापः शान्ता न नः किं पुनरप्सरस्सु / निर्वाति तु त्वन्ममताक्षरेण सुनाशुगेषोर्मधुशीकरेण // 00 / / सुधेति / हे भैमि ! सुधासरःसु अमृतसरसीषु नोऽस्माकं त्वत्कृतानङ्गतापो न शान्तः अप्सरःस्वपां सरःसु उर्वश्यादिवेश्यासु वा किं पुनः किमुत ? किन्तु सूनाशुगेपोः कामबाणस्य मधुशीकरण मकरन्दबिन्दुना तत्सदृशेनेत्यर्थः। तव ममताक्षरेण ममताभ्यञ्जकवाक्येन मदीया यूयमित्येवंरूपेण निर्वाति शाम्यति / यद्विरहादयं तापः स तत्सङ्गमैकसाध्यो नोपायान्तरसाध्य इत्यर्थः // 10 // __ हे दमयन्ती ! अमृत सरोवर में स्नान करने पर भी हमलोगोंका त्वत्कृतकामताप शान्त नहीं हुआ, अतः रम्भा आदि वेश्याओं के साथ रमण करनेसे उसको शान्त होने की आशा ही नहीं। किन्तु काम बाणके मकरन्द बिन्दुके सदृश तेरे मम्ता व्यञ्जक ( तुम मेरे हो ) वाक्य से वह शान्त होता है / [ तेरे विरहसे जो हमलोगोंका ताप है, वह केवल तेरे संगमसे ही निवृत्त हो सकता है, अन्यथा नहीं ] // 100 / / खण्डः किमु त्वाद्दर एव खण्डः कि शर्करा तत्पथशक रैव / कृशाङ्गि! तद्भङ्गरसास्थकच्छणन्नु दिक्षु प्रथितं दिक्षुः / / 101 / / .खण्ड इति / हे कृशाङ्गि ! खण्डः खण्डशकरा त्वदिर एव त्वद्वचस एव खण्डः
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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