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________________ नैषधमहाकाव्यम् / तत्र भावनापामिति भावः / निमीलनेषु अपि निमेषावस्थासु अपि विकोकयन्तीभिः उन्मेषावस्थायामिव साक्षात् कुर्वतीभिः माभिः मानधीभिः अमुल्य मलस्य दर्शने निमेषनिर्मितः नेमिमीलनमनिता विग्नशोऽपि अन्तरायलवोऽपि न अकम्भिन प्राप्तः / 'विभाषा पिण्णमुलोः' इति मुमागमः / मानव्यः हरिगोचरं या मष्टिगो. चरशतं मनसा सततं पश्यन्ति स्मेति भावः / अतिशयोक्किरलकारः // 29 // सतत मावनावश नेत्रोंको बन्द करने पर भी इस नरूको देखती हुई मांगनाओं ( मृत्युलोकवासी सुन्दरियों ) ने इस (नल ) को देखनेके विषय, निमेषकत ( पटक गिरनेसे ) लेशमात्र मी विघ्नको महीं प्राप्त किया। [मानवी स्त्रियाँ निरन्तर नरूको ही भावना करती थी, अतएव वे पलक गिरनेसे नेत्रों के बन्द होने पर भी सतत भावनावश नक. को देखती ही थीं, इस प्रकारसे नलको पलक गिरनेसे मी नको देखनेमें लेशमात्र मी विघ्न नहीं हुआ ) // 29 // न का निशि स्वप्नगतं ददर्श तं जगाद गोत्रस्खलिते च का न तम् ? / तदात्मताभ्यातधवा रते च का चकार वा न स्वमनोमयोद्भवम् ? // 30 // नेति / का नारी निशि रात्रौ तं नलं स्वप्नगतं न ददर्श ? सधैव ददशेस्यर्थः / का च गोत्रस्खलितेषु नामस्खलनेषु तं न जगाद स्वभर्तृनाग्नि उच्चरितम्ये तमाम न उचरितवती अपितु सर्वव तथा कृतवती इत्यर्थः / काच रते सुरतण्यापारे तदात्मा 'तया नलाग्मतया ध्यातः चिन्तितः भवः भर्ता यया तथाभूता 'धवः प्रियः पतिर्मत'. त्यमरः / स्वस्य आरमनः मनोमवः कामः तस्य उद्भवः तं वा न चकार ? अपितु सर्वैव तया चकारेत्यर्थः / अतिशयोक्तिरलारः // 30 // (अब पतिव्रतामों को छोड़कर अन्य मुग्धा, मध्या. तथा प्रगश्मा खियोका नसमें अनुराग कहते हैं-) किस ( मुग्धा ) स्त्रीने स्वप्नमें प्राप्त नलको नहीं देखा ? अर्थात सबने देखा, किस ( मध्या ) स्त्रीने गोत्रस्खलन (पतिके नामके स्थानपर भ्रमवश पुरुषान्तरका नामोचारण होने ) में नसके प्रति नहीं कहा अर्थात् सपने अपने पतिका नाम लेने की इच्छा रहते हुए भी निरन्तर नरूकी भावना करते रहनेसे नसके ही नामका उच्चारण किया और नकरूपसे पतिका ध्यान करनेवाली किस ( प्रगल्मा ) स्त्रीने रतिकाल में अपने में कामको उत्पत्ति ( रति ) नहीं की ? अर्थात सबने की // 30 // श्रियास्य योग्याहमिति स्वमीभितुं करे तमालोक्य सुरूपया धृतः / विहाय भैमीमपदर्पया कया न दर्पणः श्वासमलीमसः कृतः ? / / 31 / / श्रियेति / तं नलम् आलोक्य दृष्ट्वा श्रिया सौन्दर्येण अहमस्य नलस्य योग्याअनु. रूपाइति धियेति शेषः स्वम् भात्मानं स्वावयमित्यर्थः। ईपितुं द्रष्टुं करे इतः। गृहीतः दर्पणः भैमी भीमनन्दिनी दमयन्तीमित्यर्थः / विहाय विनेत्यर्थः कया सुरूपया शोभनरूपवती हमित्यभिमानवत्या नार्या अपदर्पया वर्षशून्यया सरमा श्वासन दुःख
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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