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________________ प्रथमः सर्गः। हुआ तथा पतिव्रतामों के अतिरिक्त स्त्रियोंके चित्तमें नल के प्रति कामामिलाप होनेसे विलास हुआ' ऐसा अर्थ कर उक्त दापका निराकरण करना चाहिए / नल कामदेवके समान सुन्दर थे ] / / 26 // निमोलनभ्रंशजुषा दशा भृशं नियोय तं यत्रिदशीभिरजितः / अमुस्तमभ्यासभर विवृण्वते निमेषनिःस्वरधुनापि नाचने: / / 27 / / निमीलनेति / त्रिदशीभिः सुराङ्गनाभिः निमोल नभ्रंशजुषा निर्निमेषयेत्यर्थः / इशा नयनेन तं नलं भृशम् भतिमात्र निपीय सतृष्ण दृष्टवेत्यर्थः। यः अभ्यासमर: अभ्यासातिशयः कृतः, अमूविरश्यः देण्या अधुनापि निमेषनिःस्वैः निमेषशून्यैः लो वनैः तम् अभ्यासमरं विवृण्वते प्रकटयन्ति / तासां स्वाभाविकस्य निमेषा. भावस्य तारशनिरीक्षणाभ्यासवासनया तस्वमुत्प्रेषयते // 27 // देवागनाओंने निमेषरहित दृष्टिले उस ( नरू ) को अच्छी तरह देखकर जिस अभ्या. साधिक्यको सम्पक प्रकारसे प्राप्त किया, उस अभ्यासाविषयको वे ( देवाङ्गनाएँ ) मा मो निमेषरहित नेत्रोंसे प्रकट करती हैं [ देवाङ्गनामों के स्वतःसिद्ध निमेषामावको नलदर्शनके अभ्यासाधिक्यसे एत्पन्न होनेको उत्प्रेक्षा की गयी है। अधिक अभ्यस्त कार्यका बहुत समयके बाद मो विस्मरण नहीं होना स्वमावसिद्ध है ] // 7 // अदस्तदाकणि फलाढथ नावितं हशाद्वयं नस्तदवीशि चाफलम् / इति स्म चक्षुःश्रवां प्रिया नले स्तुवन्ति निन्दन्ति हुदा तदात्मनः / / 28|| ____ अद इति / चतुःश्रवसा नागानां प्रियाः पन्य इत्यर्थः / अदः इदं नोऽस्माकं इशोश्चक्षुषायं तं नलम् आकर्णयतीति तदाकर्णि तद्गगावीत्यर्थः, तासां चतु: श्रवत्वादिति भावः / अत एव फलाढय जावितं सफल जीवितम् / न वीदते इत्यवीति, अधोभपोस्ताच्छाप्ये णिनिः / तस्य नलस्य अाति तदवीधि तददीत्यर्थः / अत एव अफल्म, इति हेताः / तदा तस्मिन् काले भास्मना स्वेन हृदा मनसा नले नल. विषये स्तुवन्ति प्रशंपन्ति निन्दन्ति कुस्मयन्ति च / अतिशयोक्तिरलङ्कारः // 28 // 'हमलोंगोंके ये दोनों नेत्र उस ( नल के चरित मादि ) क' सुनकर मकर जीवनवाले हो गये किन्तु उस ( नल ) को देख नहीं सके' इस प्रकार चक्षुःश्रवा (सोपों ) को प्रियायें अर्थात् नागाङ्गनाएँ हृदयसे क्रमशः माने दानों नेत्रका प्रशंसा नया निन्दा करती हैं। ( नागनाएँ नेवासे ही सुनने के कारण नल चरितको मुनकर अपने नेत्रोंका हृदयसे प्रशंसा करती है और स्वयं पाताल में रहने के कारण मर्त्यलोकवासी नलको नहीं देखनेसे उन नेत्रोंको निन्दा भी करती हैं ) // 28 // विलोकयन्तोभिरजनभावनाबलादमं तत्र निमोलनेष्यपि / अलम्भि माभि'मुख्य दर्शने न विनले शाऽपि निमेषनिर्मितः / / 26 | विलोकयन्तीभिरिति / अजनभावनाबला निरन्तरध्यानप्रभावात् अमुं नलं
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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