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________________ 404 नैषधमहाकाव्यम् / अस्या इति / चारुतया सौन्दर्यगुणेन महान्तौ अस्याः पदौ पादौ अवेच्य / 'पादः पदनिश्चरणोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः / सौचयात् तदपेक्षयाऽत्पत्वादिति भावः। लवभावभाजोऽल्पत्वभाजो महीरुहाणां प्रवालस्य किसलयस्य पल्लवशब्दलब्धिः पदयां लवोऽल्प इति न्युत्पत्त्या पल्लवसंज्ञा प्राप्तिर्जाता जानीमह इत्युस्प्रेचामाह इत्यर्थः / “अस्मदोद्वयोश्च" इति विकल्पादेकस्मिन्नेव बहुवचनम् // 98 // सुन्दरतासे श्रेष्ठ इस दमयन्तीके चरणोंको देखकर ( दमयन्तीके चरणोंकी अपेक्षा) हीनताके कारण अल्पता ( लघुता ) को प्राप्त किये हुए, पेड़ोंके नवीन पत्तोंका 'पल्लव' ( दमयन्ती के पैरका लेश है जिसमें ऐसा ) नाम पड़ गया है, यह हमलोग समझते हैं [ पेड़ोंके नये 2 अरुण वर्ण पत्तोंकी अपेक्षा दमयन्तीके चरण अत्यधिक लाल हैं ] // 98 // जगद्वधूमुधसु रूपदपोद् यदेतयाऽधायि पदारविन्दम् / तत्सान्द्रसिन्दूरपरागरागैध्रुवं प्रवालप्रबलारुणं तत् / / 66 // जगदिति / यत् यस्मात् , एतया भैम्या रूपदर्पात् सौन्दर्यगर्वात् , द्वयमुभयं पदारविन्दं द्वे अपि पदारविन्दे इत्यर्थः। जगद्वधूमूर्धसु अधायि निहितं, धात्रः कर्मणि लुङ / "आतो युकचिणकृतोः" इति युगागमः / तत् तस्मात् , तेषु मुर्धसु ये सान्द्राः सिन्दूरपरागरागाः तैःप्रवालाद्विद्रुमादपि प्रबलारुगमधिकारुणंध्रवमित्युत्प्रेक्षा // 19 // जो इस दमयन्तीने सौन्दर्य के अभिमानसे संसार की स्त्रियों के शिरपर दोनों चरणों को रखा, उस कारणसे ( अथवा-वे ही दोनों चरण ) मानों उन संसार को स्त्रियोंके सघन सिन्दूरकी धूलिके रंग लालिमासे नवपल्लव ( या मूगा) से भी अधिक लाल हो गये हैं। संसारकी सधवा स्त्रियां जो शिरपर नवपल्लव या मूगेसे भी अधिक अरुण वर्ण सिन्दूरपराग धारण करती हैं, वह अधिक सौन्दर्यशालिनी दमयन्तीका चरणद्वय है। दमयन्ती जगत् की समस्त सुन्दरियों से भी अत्यधिक सुन्दरी है, तथा इसके चरणों की शोमा नवपल्लव, मूगा और सिन्दूरपरागके समान है / / 99 // रुषारुणा सर्वगुणैजेयन्त्या भैम्याः पदं श्रीः स्म विधवृणोते / ध्रषं स तामच्छलयद्यतः सा भृशारुणतत्पदभाग्विभाति // 10 // रुषेति / श्रीः लक्ष्मी रुषा पराजयक्रोधेन अरुणा सती सर्वगुणैर्जयन्स्या आस्मानमतिक्रामन्त्या भैग्याः पदं स्थानं विधेः सकाशात् वृणीते स्म वने / स विधिस्तां श्रियमच्छलयत् प्रतारितवान् ध्रुवं स्थानार्थविवक्षया पदप्रार्थनायामनिदानादिति भावः / 'पदं व्यवसितत्राणस्थानलसम्यज्रिवस्तुषु' इत्यमरः / यतः सा श्रीरेतत्पदभागे तस्याः भैम्याः अघ्रिभाक् सती शोभारूपेणेति भावः / भृशारुणा विभाति आरुण्यप्रत्यभिज्ञानात् तदाघिरेवैतत्स्थानमिति जानीम इत्यर्थः // 10 // क्रोधसे लाल लक्ष्मी (पक्षा०-शोभा) ने सम्पूर्ण गुणोंसे विजय करती हुई इस दमयन्तीके पद (स्थान, स्वरूप या शोभा ) को ( चरणको नहीं ) ब्रह्मासे वर माँगा (फिर) उस ब्रह्माने
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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