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________________ सप्तमः सर्गः। नास्पशि दृष्टापि विमोहिकेयं दोषैरशेषैः स्वमियेति मन्ये / अन्येषु तैराकुलितस्तदस्यां वसत्यसापल्यमुखी गुणोषः // 10 // नेति / दृष्टापि विमोहिका दर्शनमात्रेणापि म्यामोहिकेनं दमयन्ती वशेषोंः स्वमिया अस्मानपि मोहयिष्यतीत्यास्मीयमयेनैव नास्पर्शि न स्पृष्टेति मन्ये / उत्प्रेक्षा / भीरवो हि भयहेतून स्पष्टुमेव बिभ्यतीति भावः। तत्तस्मात् दोषस्पर्शाभावात् / अन्येषु स्यन्तरेषु तैर्दोषैराकुलितः पीडितो गुणोधोऽम्बां मैम्बामसापन्येन अकण्टकत्वेन सुखी सन् वसति "प्रायेण सामग्रयविधौ गुणानामि" स्यपवादोऽस्यामेव दृष्ट इति भावः // 17 // देखनेसे भी (कामजन्यमावसे ) मोहित (पक्षा०-मूञ्छित) करनेवाली इस दमयन्ती फो सम्पूर्ण दोषोंने अपने भयसे स्पर्शतक नहीं किया, ऐसा मैं मानता हूँ। अत एव अन्य स्त्रियों में उन दोषोंसे व्याकुल गुण-समूह शत्रु रहित अर्थात् निष्कण्टक होनेसे निश्चिन्त होकर इस दमयन्तीमें रहता है / [ 'जो दमयन्ती केवल देखनेसे ही मोहित या मच्छित करती है उसके समीपमें रहनेसे न जाने हमारी क्या दुर्दशा हो जायेगी ?' इस भयसे दमयन्तीके पास एक भी दोष नहीं आया अर्थात् दमयन्ती समी दोघैसे अच्छता रहीं, तथा वे दोष अन्य स्त्रियोंमें रहते हुए वहां रहनेवाले गुण-समूहकों परस्पर वैरभाव होनेसे काट देने लगे, इस कारण कष्टदायक दोषोंसे रहित दमयन्तीको सुरक्षित स्थान समझकर वह गुणसमूह यहीं आकर बस गया / लोकमें मी भयप्रद स्थानको छोड़कर सुरक्षित स्थानमें लोग निवास करते हैं, अत एव दोषोंने भयप्रद दमयन्तीको छोड़कर अन्य खियों में तथा गुणोंने अन्य स्त्रियोंमें दोषों के रहनेसे उस स्थानको भयप्रद समझकर दमयन्तीमें निवास औमि प्रियाङ्गघृणयैव रूक्षा न वारिदुर्गात्तु वराटकस्य / न कण्टकैरावरणाच्च कान्तिधूलीभृता काञ्चनकेतकस्य / / 18 / / औज्झीति / प्रियांगै.मीगात्रैः वराटकस्य बीजकोशस्य कमलकर्णिकाया इत्यर्थः / 'बीजकोशो वराटकः' इत्यमरः / रूक्षा परुषा कान्तिपुणयैव रोक्ष्यजुगुप्सयैव औझि विसृष्टा / उज्झ विसर्गे कर्मणि लुङ / वारिदुर्गाद्वारिदुर्गस्थत्वात्तु न / किं च काञ्चनकेतकस्य धूलीभिर्भूता पूर्णा कान्तिरौज्ज्ञि रजःकीर्णत्वादेवोज्झिता कण्टकैरावरणात्तन / रोच्यादिदोषदूषितत्वाब भैमीकायकान्तिसाम्यमर्हति / महती तत्कायकांतिरित्यर्थः // 18 // प्रिया दमयन्तीके अङ्गोंने कमलगटेकी शोभाको 'रूक्ष ( तीघ्र, कठोर हैं। इस घृणासे छोड़ दिया, 'जलरूपी ( अथवा-कमलरूपी ) दुर्गमें बह कान्ति रहती है इस भयसे नहीं छोड़ा, और सुवर्ण केतकीपुष्पकी शोभाको 'यह धूलि (पराग ) वाली है। इस घृणासे ही छोड़ दिया, 'कॉटोंसे घिरी रहनेसे सुरक्षित होनेसे अजेय है। इस भयसे नहीं छोड़ा 230
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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