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________________ नैषधमहाकाव्यम् / ष्टिभैमीनिर्माणार्थाभ्यासरूपत्वोोता। किं च येयं भाविनीनां पुरन्ध्रीणां षष्टिः सा अस्य भैम्यैतासांपुरन्ध्रीणां जयेन जातं तज्जयज यशो प्रदातुमिति फलोत्प्रेक्षा // 15 // प्रथम रचनामें खो-समूह (पाठा०-प्रथम रचनारूप स्त्री-समूह) इस दमयन्तीकी रचना करने के लिये ब्रह्माका प्रथम अभ्यास था। (दूसरा भी कोई कारीगर किसी उत्तम पदार्थकी रचना करनेके लिये पहले अभ्यासार्थ उस निर्मातव्य पदार्थसे कम गुणवाले पदार्थकी रचना करता है)। और स्त्रियोंकी रचना हो रही है तथा भविष्यमें होगी वह तो इस दमयन्तीके लिये उन (वर्तमानमें होती हुई तथा भविष्यमें होनेवाली स्त्री-रचना) की विजयसे होनेवाले यशको देने के लिये है। [ पहले तो ब्रह्माने सुन्दरी इस दमयन्तीकी रचना करने के लिये अभ्यासार्थ उवंशी आदि देवाङ्गनाओंकी रचना की, तथा वर्तमानमें जो वे स्त्रियोंकी रचना कर रहे हैं और भविष्यमें जो स्त्रियोंकी रचना करेंगे, वह रचना, 'दमयन्तीने अपने सौन्दर्य से वर्तमान तथा भावी सब स्त्रियोंको जीत लिया है। ऐसा दमयन्तीका यश हो इस उद्देश्यले है / दमयन्तोके समान सुन्दरी भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान काल में कोई स्त्री नहीं है ] // 15 // भव्यानि हानीरगुरेतदङ्गात् यथा यथानति तथा तथा तः। अस्याधिकस्योपमयोपमाता दाता प्रतिष्ठां खलु तेभ्य एव / / 16 / / भव्यानीति / भव्यानि रम्याणि चन्द्राद्यपमानवस्तूनि, एतस्या भेम्याः, अङ्गात् मुखादेर्यथा यथा हानीरपकर्षान् "ग्लाम्लाजहातिभ्यो निर्वक्तव्य" इति जहाते. स्त्रियां निप्रत्ययःक्तिनोऽपवादः / अगुरगमन् , “इणो गा लुङि" इति गादेशे "गाति स्था" इत्यादिना सिचो लुक / “आत" इति मेर्जुमादेशः / तथा तथा तेश्चन्द्राद्यपमानैरनर्ति हर्षान्नृत्यं कृतमित्यर्थः / नन्वपकर्षे कथं हर्षः ? तत्राह-उपमाता कविः "मातेर्माङि वा तृन्"। अधिकस्योत्कृष्टस्यास्य भैम्यङ्गस्योपमया उपमानीकरणेन / अथ वा गत्यन्तराभावात् तैरेव तुलनया तेषामेवोपमानीकरणेनेत्यर्थः / तेभ्यश्चन्द्रादिभ्य एवं प्रतिष्ठा दाता दास्यति / ददातेलृट् / तथा च यथा कथंचित् प्रतिष्ठालङ्कारे उपमेयत्वेन वा, उपमायामुपमानत्वेन वा कविप्रसादाच्चन्द्रादीनां पुनः प्रतिष्ठा भविष्यति इत्यनीत्यर्थः // 16 // सुन्दर ( चन्द्रमा, कमल आदि ) पदार्थोंने इस दमयन्तीके शरोरसे जैसे-जैसे अर्थात् जितनी-जितनो ( पराजय होनेसे) हानि उठायो, वैसे-वैसे अर्थात् उतना-उतना ही अधिक उन्होंने नृत्य किया अर्थात् प्रसन्न हुए / ( हानि उठानेपर भी उनके प्रसन्न होनेका कारण यह था कि उन्होंने सोचा कि ) उपमा देनेवाला ( कवि आदि ) इस दमयन्ती-शरीरकी उपमासे उन्हीं लोगों ( चन्द्रमा, कमल आदि पदार्थों ) के लिये प्रतिष्ठा देगा। [ दमयन्तीशरीर के लिये अन्य उपमाका अभाव होनेसे उपमाता कवि आदि 'दमयन्तीका मुख चन्द्रमा सनान है, नेत्र कमलके समान है, इत्यादि उपमा देकर चन्द्रमा, कमल आदिकी ही प्रतिष्ठा बढ़ावेंगे, यही उन सुन्दर चन्द्रमा, कमल आदि पदार्थोके पराजयजन्य हानि होने र भी प्रसन्न होकर नृत्य करनेका कारण है ] // 16 / /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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