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________________ 312 नैषधमहाकाव्यम् / भी अपना-अपना सन्देश दूतियों के द्वारा भेजा था; अत मैं इन्द्र को वरणकर अपने पातिव्रत्य धर्मको नष्ट कर तथा अग्नि आदिको रुष्टकर स्वर्गमें केवल सुख पाना नहीं चाहती, किन्तु पूर्ववत् नलको ही वरणकर सुख प्राप्तिके साथ ही धर्मरक्षा तथा यज्ञके द्वारा इन्द्र और अग्नि आदि देवताओंके साथ ही अन्य सभी देवोंको प्रसन्न करना श्रेयस्कर समझती हूँ ] // 98 // साधोरपि स्वः खलु गामिताधोगामी' स तु स्वर्गमितः प्रयाणे / इत्यायति चिन्तयतो हदि द्वे द्वयोमदः किमु शर्करे न ||1|| इतोऽपि कारणात् भूलोक एव श्रेयानित्याह-साधोरिति / किंच, साधोःसुकृति.. नोऽपि स्वः स्वर्गादधोगामिता गमिष्यत्ता खलु। (साधुरपि कदाचिदधःपतस्येवे. त्यर्थः।) स साधुरितोस्मात् भूलोकात् , प्रयाणे तु स्वर्ग गामी गमिष्यति / "ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति" इति गीतावाक्यात् / "भविष्यति गम्यादयः" इति गमिन्शब्दस्य भविष्यदर्थता / “अकेनो" इति षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया / इतीत्थमायतिमुत्तरकालम् / 'उत्तरः काल आयतिः' इत्यमरः / हृदि चिन्तयतो विवेकिनो द्वयोः स्वभूलोकयोः। उदमुत्तरफलम् / 'उदकः फलमुत्तरम्' इत्यमरः। द्व शर्करे न किसु, शर्करे एवेत्यर्थः। एका शर्करा (इसम्भवा) शिलाशकलप्राया, मृत्प्राया अपरापीक्षुविकारा। तत्र क्रमाद्वाव. प्युदों दे शर्करे, तत्कल्पावित्यर्थः / अत एव निदर्शनालङ्कारभेदः। 'शर्करा खण्डविकृतावुपला शर्करांशयोः' इति विश्वः / / 99 // सज्जनका भी स्वर्गसे चलकर (क्षीणपुण्य होनेपर ) अधोगमन होता है तथा यहांसे (भूमिसे ) चलकर ( मरकर ) स्वर्ग-प्राप्ति होगी, इस प्रकार उत्तरफलको ( पाठा०-दोनों उत्तरफलोंको ) सोचते हुए ( व्यक्ति ) के हृदयमें दोनोंका फल दो शर्कराये ( प्रथम शर्करा कंकड, द्वितीय शर्करा शक्कर ) नहीं है क्या ? [ पुण्यक्षीण होने पर स्वर्गवासी सज्जन अधो लोकमें आता है, अतः यह तो अनिष्टकारक फल होनेसे कंकड़ रूप ( नीरस तथा कठोर ) है तथा मरकर सज्जन भूमिसे पुण्यातिशयसे स्वर्ग में जाता है, अतः इसका फल श्रेयस्कर होनेसे शक्कर रूप ( मधुर, एवं सरस ) है / अतः मैं नलको वरणकर भूमिमें ही रहना पसन्द करती हूँ] // 99 // प्रक्षीण एवायुषि कर्मकृष्ट नरान्न तिष्ठस्युपतिष्ठते यः / बुभुक्षते नाकमपध्यकल्पं धीरस्तमापातसुखोन्मुख कः // 10 // प्रतीक्षण इति / किंच यो नाकः कर्मकृष्ट कर्मार्जिते आयुषि प्रक्षीणे सत्येव नरान् मनुष्यानुपतिष्ठते सङ्गच्छते / तिष्ठति सति नोपतिष्टते "उपाद्देवपूजा" इत्यादिना सङ्गतिकरणे तङ्। आपाते प्रारम्भे, सुखोन्मुखं सुखप्रवणं, न तु परिणाम इत्यर्थः / 1. "गमी" इति पाठान्तरम् / 2. "इत्यायती" इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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