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________________ षष्ठः सर्गः। 541 आर्यश्रेष्ठ (मनुमादि ) चार आश्रमों में गृहस्थाश्रमके समान वर्षोंमें जिस मारतवर्षको प्रशंसा करते है', उस इस भारतवर्ष में पति ( नल ) की सेवाके द्वारा माल-तरसे चित्रित पनका काम करना चाहती हूँ / / 97 // / स्वर्गे सतां शर्म परं न धर्मा भवन्ति भूमाविह तब ते च / इष्टचापि तुष्टिः सुकरा सुराणां कथं विहाय त्रयमेकमोहे // 18 // ननु स्वर्गेऽपि सुखधौं स्त इत्यह आह-स्वर्ग इति / स्वर्गे सतां स्वर्गवासिनामित्यर्थः। शर्म परं सुखमेव (अस्ति)। धर्माः सुकृतानि न भवन्ति इहास्यां भूमौ तधर्म च ते च धर्माश्च भवन्ति सम्भवन्ति / किश्चह इण्ठ्या यागेन सुराणां सुष्टिरपि सुकरा सुसम्पाद्या / एवं सति कथं त्रयं शर्मधर्मतुष्टिरूपं विहायकं सुखमीहे। न चैतत् प्रेशावत्कृत्यमिति भावः / तस्मात् स्वर्गादपि भूलोक एव श्लाध्य इत्यर्थः // ___ स्वर्गमें निवास करनेवालोंको केवल सुख होता है, धर्म नहीं होते, इस भूमि पर वह सुख तथा वे धर्म-दोनों ही होते हैं / (मारत-भूमिमें निवास करते हुए) यशके द्वारा भी देवताओं का हर्ष ( उत्पादन ) किया जा सकता है, तो मैं तीन ( सुख, धर्म तथा सब देतताओंका हर्ष ) को छोड़कर एक ( केवल सुख ) क्यों चाहूँ ? [ भारतके भोग एवं कर्म भूमि होने से यहां रहकर सुख तथा धर्म दोनों ही साधन मुलम हैं, साथ ही भारत भूमिमें रहकर यशोंके द्वारा सब देवताओं को (केवल इन्द्र को ही नहीं) मी प्रसन्न किया जा सकता है, इस प्रकार नलको वरणकर भारतभूमिमें रहती हुई मैं मुख, धर्म तथा सब देवताओं को प्रसन्न रखना-तीनों कार्य सम्पादन कर सकती हूँ; इसके विपरीत यदि मैं इन्द्रको वरणकर लेती हूँ तो स्वर्गको केवल भोग-भूमि होनेसे वहां सुख मानकर लाम तो कर सकती हूँ, परन्तु धर्म तथा देव-हर्षोत्पादनका नहीं, बल्कि इन्द्रको वरण करनेपर-पहले हृदयसे नलको वरण कर लेने के बाद फिर मेरा पातिव्रत्य धर्म नष्ट ही जायेगा और यम, अग्नि एवं वरुण भी मुझपर रुष्ट हो जायेंगे, क्योंकि उन तीनों देवोंने 1. तदाह मनुः- "यथा वायु समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः। तथा गृहत्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः / / यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्तेन चान्वहम् / गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माच्छ्रेष्ठतमो गृही // (377-78 ) 2. तथा च “वर्षेपराधम्" ( अमि, चिन्ता० 4 / 13) इत्यस्य व्याख्याने हेमचन्द्राचार्या माहुः "भारतं प्रथम वर्षे ततः किम्परुषं स्मृतम् / हरिवर्ष तथैवान्यन्मेरोदक्षिणतो द्विजः(१) / रम्यकं चोत्तरं वर्ष तस्यैवानु हिरण्मयम् / उत्तराः कुरवश्व यथा वे भारतं तथा / / भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः केतुमालं तु पश्चिमे / नवसाहस्रमकैकमंतषां द्विजसत्तम ! // इति / इलवृत्तञ्च तन्मध्ये मेरुरुत्थितः।"
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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