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________________ षष्ठः सर्गः। द्वारा दी गयी तथा इन्द्रका प्रसाद समझकर दमयन्तीके द्वारा सादर ग्रहण की गयी...... / इन्द्रदूती द्वारा दी गयी पारिजत मालाको जब दमयन्तीने इन्द्र का प्रसाद मानकर सारले लिया, तब नलने सोचा कि “इन्द्र को भेजी हुई पारिजात-मालाको बड़े आदर के साथ दम. यन्ती ले रही है, अतः मालूम पड़ता है कि यह इन्द्र में ही अब अनुरक्त हो रही है, इस कारण इन्द्रको ही वरण करेगी, मुझे नहीं", ऐसा विचार कर आते ही नलदमयन्तीकी प्राप्तिसे निराश हो गये / इधर उस प्रकार आदरपूर्वक पारिजात-मालाको लेती हुई दमयन्तीको देखकर इन्द्रदूतीने सोचा कि दमयन्ती इन्द्रमें अनुरक्त होकर ही आदरके साथ उनकी माला ले रही है, अतः हमारी आशा पूरी हो गयी। किन्तु नल तथा इन्द्रदूती--दोनों ही भ्रममें थे, क्योंकि दमयन्ती 'मालाको ( देवराज इन्द्र प्रसाद को ) ग्रहण नहीं करनेसे पूज्य देवताका अपमान होगा' ऐसा बिचारकर ही पारिजात-मालाको लिया था 'इन्द्रने प्रेमपूर्वक मुझे भूषणोपहाररूपमें इस पारिजात-मालाको भेजा है। ऐसा समझकर भूषणरूपमें नहीं लिया था ] // 86 // आयें ! विचार्यालमिहेति कापि योग्यं सखि स्यादिति काचनापि' / ओंकार एवोत्तरमस्तु वस्तु मङ्गल्यमत्रेति च काप्यवोचत् // 7 // आर्य इति // आर्ये भमि, इहेन्द्रनरणे विचार्य अलम् / विचारो न कर्तव्य इति कापि सखी अवोचत् / सखि भैमि, योग्यमिदं युक्तं स्यादिति काचनाप्यवोचत् अत्र ओंकारोऽङ्गीकार एव मङ्गल्यमुत्तरमुत्तररूपं वस्त्वस्त्विति काप्यवोचत् // 87 // ( उस समय दमयन्ती से किसी सखीने ' हे आर्ये ! इस विषयमें बिचार मत करो अर्थात् इन्द्रको वरण करनेका निश्चय कर लो' ऐसा, किसी सखीने “यह ( इन्द्र वरणरूप कार्य ) योग्य है" ऐसा और किसी सखीने "इस ( इन्द्रको वरण करने के विषय ) में ( स्वीकृतिसूचक ) ॐकार ही मङ्गल वस्तु होवे" ऐसा कहा / [ सब सखियोंने इन्द्रको वरण करनेके लिये ही दमयन्तीसे कहा ] // 87 // अनाश्रवा वः किमहं कदापि वक्तुं विशेषः परमस्ति शेषः। हतीरिते भीमजया न दुतीमालिङ्गदालीश्च मुदामियत्ता ||8|| अनाश्रवेति / हे सख्यः, अह कदापि वो युष्माकं, अनाश्रवा अवचनकारिणी किं, परं किन्तु वक्तुं विशेषः शेषोऽस्ति / किंतु, वक्तव्यशेषः कश्चिदस्तीत्यर्थः / इति भीमजया भैम्या, ईरिते उक्ते सति दूतोमिन्द्रशम्भलीमालीभैमीसखीश्च मुदामियत्ता मिति लिङ्गन्न प्रापत् / स्वोक्तमगीकृत्य तत्र किञ्चिद्वरदानमपेक्षत इति भ्रान्त्या महान्तमानन्दमविन्दन्तेत्यर्थः // 88 // ___ "मैंने तुमलोगोंके कथनको कभी नहीं सुना है क्या ! अर्थात् सर्वदा मैंने तुमलोगों के कहने के अनुसार ही किया है, किन्तु कहने के लिए कुछ विशेष बाकी है' ऐसा दमयन्तीके ,"-नायि"इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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