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________________ षष्ठः सर्गः। वस्थामें प्रवेश कर रही है, जैसे द्वारपालरूपमें स्थित अन्य कोई व्यक्ति छड़ी लेकर किसीको रोकता है, वैसे ही दमयन्ती भी इस बाल्यक्रीडादिको युवावस्थाके आरम्भमें नामिके नीचे उत्पन्न होती हुई रोमावलिरूप बेतको धारण की हुई रोक रही है तथा युवावस्थासंबंधी द्वारकी अवस्थाका परिचय ( युवावस्थामें प्रवेश ) कर रही है // 38 // पश्याः पुरन्ध्रीः प्रति सान्द्रचन्द्ररजाकत कोडकुमारचके / चित्राणि चक्रेऽध्वनि चक्रतिचिह्न तध्रिप्रतिमासु चक्रप / / 3 / / पश्या इति // सान्द्राणि चन्द्ररजांसि कर्पूरपांसवः / 'अथ कर्पूरमनियाम् / घनसारश्चन्द्रसंशः' इत्यमरः / तैः कृतक्रीडं कुमारचक्रं, बालसको यस्मिन् तस्मिन् अध्वनि चक्रवर्तिचिह्न सार्वभौमलक्षणं, तस्य नलस्य, अधिप्रतिमासु पादन्यासेषु। चक्रं चक्ररेखाः पश्यन्तीति पश्याः पश्यन्तीः, "पाघ्रा" इत्यादिना शप्रत्ययः पश्या. देशश्च / पुरन्ध्रीः प्रति स्त्रिय उद्दिश्य चित्राणि चक्रे / तासामाश्चर्याणि जनयामा. सेत्यर्थः // 39 // ___ सघन कर्पूर-धूलि में ( या सघन कर्पूर धूलिसे ) खेले हैं राजकुमार जिसमें ऐसे मार्गमें उस नलके पैरोंके चिह्नों में चक्रवर्तीका चिह्नभूत चक देखती हुई खियोंको आश्चर्यित कर दिया। [नल जिस मार्गसे गये वह मार्ग बहुत-सी कपुरधूलिवाला था तथा वहाँ पर पहले राजकुमार क्रीडा कर चुके थे, उस मार्गमें नलके पैरके चिह्न पड़ गये, उन चिह्नों में चक्रवर्ती के लक्षणभूत चक्रका चिह्न था, उसे देखकर स्त्रियां आश्चर्य करने लगी कि कौन चक्रवर्ती इस मार्गसे गया है, जिसके पैरोंके चिह्नमें यह चक्र दीख रहा है / उन खेलनेवाले राजकुमारोंके पादचिहकी अपेक्षा बड़ा होनेके कारण 'यह चिह्न किसी राजकुमारका ही है' यह सन्देह उन स्त्रियों को हुआ ] // 39 // तारुण्यपुण्यामवलाकयन्त्योरन्योन्यमेणेक्षणयोरभिख्याम् | मध्ये मुहूते स बभूव गच्छन्नाकस्मिकाच्छादनविस्मयाय // 40 // तारुण्येति // तारुण्यपुण्यां यौवनमनोज्ञाम् / 'पुण्यं मनोज्ञ' इति विश्वः। अन्योन्यमभिख्यां शोभामवलोकयन्स्योरेणेक्षणयोः मृगाच्योर्मध्ये गच्छन् महूर्तम् , ईष स्कालम्, आकस्मिकाच्छादनेन निर्हेतुकव्यवधानेन विस्मयाय वभूव / अत्र व्यवधान. कारणं विना व्यवधानोक्तेरकारणे कार्योत्पत्तिलक्षणो विभावनालङ्कारः॥४०॥ यौवनावस्थाकी मनोज्ञ शोभाको परस्पर देखती हुई दो मृगनयनी स्त्रियों के बीचमें जाते हुए वे नल क्षणमात्र आकस्मिक आवरण ( रुकावट ) होनेसे उनके आश्चर्यके लिये हुए। [इच्छानुसार अन्तद्धि सिद्धिके वरदान ( 5 / 137 ) पानेसे नलको अपनी इच्छाके अनुसार स्वयं अदृश्य होने पर भी उनकी छायाके अदृश्य नहीं होने तथा उनके शरीर तथा भूषण आदिका स्पर्श दूसरोंको होनेमें कोई विरोध नहीं समझना चाहिये ] // 40 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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