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________________ षष्ठः सर्गः। रीशिल्पं मायासृष्टिः / 'स्यान्माया शाम्बरी' मर जाव, सा भीमसुता नलेन दिनु अलति प्रतिदिशमलपवत / लोः कर्मणे अत्रालीकभैमीसाहाकारो जन्मान्तरानुभवावा केवलमदनमायाबलाद्वेति होता // 14 // __ अनादि सर्ग-परम्परामें या चित्रों में प्रत्यक्ष की गयी, या "शम्बर" नामक मायाकुशल दैत्यके विजयी कामदेवकी मायाकी चतुर रचना बनी हुई (माया द्वारा यथावत् सम्पादित) दमयन्तीको नलने दिशाओंमें देखा / [ अथवा-शम्बरारि ( कामदेव ) की मायाकी उत्तम रचना बनी हुई दमयन्तीको... ... ... | अथबा नलके द्वारा कामदेवकी मायाकी उत्तम रचना बनी हुई दमयन्तीको ...... / शत्रुको जीतने के बाद कोई विजेता उसकी सम्पत्तिको भो स्वाधीन कर लेता है, वैसे ही कामदेवने माया करनेमें चतुर शम्बर दैत्यको जीतकर उसकी मायाको भी स्वाधीन कर लिया है, अतएव वह (कामदेव) मी माया करनेमें अत्यन्त चतुर होकर नलके सामने मायारूपिणी दमयन्तीको सब दिशाओंमें दिखलाने लगा, मायाकल्पित वस्तुका सुन्दरतम होना तथा एक ही होनेपर सइ दिशाओं में दृष्टिगोचर होना पूर्णतः सङ्गत है / वैसे ही दमयन्ती भी नलको सब दिशाओं में दृष्टिगोचर हो रही थी। पहले नहीं देखी गयी वस्तुका दृष्टिगोचर होना असम्भव होनेसे अनादि सृष्टि-परम्परामें दमयन्तीको नल द्वारा दृष्टिगोचर होनेकी कल्पना की है, किन्तु पूर्वजन्मगत बातोंके स्मरणगोचर नहीं होनेसे चित्रोंमें दमयन्तीके दृष्टिगोचर होने की द्वितीय कल्पना की गयी है और चित्रगत प्राणीके जड़ होनेसे उसका देखना, चलना-फिरना तथा आलिङ्गन आदि करना असम्भव होनेसे कामद्वारा मायाकल्पित दमयन्तीको कहा गया है / जिस प्रकार गन्धर्वनगर को नहीं देखने पर भी उसका सर्वथा अभाव रहनेपर भी मायावश उसका अनुभव रोने लगता है, उसी प्रकार दमयन्तीका वास्तविकमें वहां अभाव होनेपर मी मनमें सतत कल्पित उसके राजभवन में उसका प्रत्यक्षवत् नलको अनुभव होना उचित ही है ] // 14 / / अलीकभैमीसहदर्शनान्न तस्यान्यकन्याप्सरसो रसाय / भेमोभ्रमस्यैव ततः प्रसादाभ्रेमीभ्रमस्तेन न तास्वलम्भि / / 15 / / अलीकेति / अन्याः कन्या अप्सरस इव / उपमितसमासः / अप्सरकल्पा अपि कन्याः तत्रत्याः स्त्रियः, अलीकभैम्या सह दर्शनाद्धेतोः तस्य नलस्य रसाय रागाय, नाभवन् / ततोऽपि तासामपकृष्टत्वादिति भावः / तर्हि, किं सारूप्यात्तास्वपि भैमीभ्रमो नाभूदत आह-भैमीति / तत इति सार्वविभक्तिकस्तसिः। ततः तस्य भैमी. भ्रमस्यैव प्रसादात्तेन नलेन तास्वन्तःपुरस्त्रीषु भैमीभ्रमो नालम्भि न प्राप्तः / अत्यन्तासादृश्यादिति भावः // 15 // सतत कल्पनाजन्य मोहके कारण असत्य ( अभाव रहनेपर ) भी दमयन्तीके साथ देखनेसे अप्सराओं के समान अन्य कन्याएँ (दूसरी स्त्रियाँ) उस नलके अनुरागके लिए नहीं हुई, क्योंकि उस दमयन्ती सम्बन्धी भ्रमके सामर्थ्यसे ही नलने उन स्त्रियों में भ्रमको नहीं,
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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