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________________ * नैषधमहाकाम्यम् / स नलः, अयं क इत्यम्यस्य स्वम्यतिरिकजनस्य, निवारकाणां, रविणा, गिरावाक्ये. न (हतुना) कण्ठं विभुज्य किं दृष्टोऽस्मीति शझ्या ग्रीवां विवलय्य वक्रीकृत्येत्यर्थः / विलंधितायामतिक्रान्सायामपि द्वारि / विस्मयेन कथमेते मामबाडुरित्याअर्येण / निस्तरङ्गां निर्निमेषां शं दधी। सिंहस्य ग्रीवाभङ्गेन लंधितावदर्शनं युक्तमिति भावः॥१२॥ समर्थ राजसिंह (राजोंमें सिंहके समान पराक्रमी, नलने ) दारके लांघ जानेपर भी "यह कौन है ?" इस प्रकार दूसरों को रोकनेवालों ( द्वारपालों ) के वचनसे (मुझको ही देखकर ये द्वारपाल मना कर रहे हैं क्या ?) इस कारण (गर्दनको पीछे मोड़कर आश्चर्य (इन्द्र के वरदानके प्रभावसे अन्तहित होनेपर भी मुझे इन लोगोंने कैसे देख लिया इस आश्चर्य ) से निश्चल दृष्टि डाली (निर्भय होकर देखा)। [ आगे बढ़े हुए किसी व्यक्तिको 'यह कौन है ? ऐसा कोई टोकता है तो वह वहींसे गर्दनको पीछेकी ओर मोड़कर देखता है, यह सर्वानुभव सिद्ध है / सिंहकी उपमा देनेसे नलकी शूरता तथा निर्भयता सूचित होती है तथा सिंह भी आगे चलता हुआ पीछेकी ओर गर्दनको मोड़कर देखता चलता है और इसी आधार पर "सिंहावलोकन' न्याय प्रचलित हुआ ] // 12 // अन्तःपुरान्तस्स विलोक्य वाला कांचित्समालब्धुमसंवृतोरुम् / निमालिताक्षः परया भ्रमन्त्या संघट्टमासाद्य चमच्चकार // 15 // अन्तरिति / स नलः, अन्तःपुरस्यान्तरभ्यन्तरे, अन्ययमेतत् / समालब्धुमुर्तयितुम् / असंवृतोरुमनाउछादितोरुदेशां, काशिद्धालां स्त्रियं विलोक्य, निमीलितात. स्सन पराङ्गनादर्शनपापभीत्येति भावः / भ्रमन्त्या तत्र सनरन्त्या परया स्भ्यन्तरेण संघट्टमभिघातं आसाथ, दूयोरपि दृष्टिप्रतिबन्धादिति भावः / चमचकार उल्लसति स्म / चमदित्यनुकारिशब्दः // 13 // अन्तःपुर (निवास) मै उद्वर्तन (तैल आदिकी मालिश या उबटन ) करनेके लिए जङ्घको उवारी हुई किसी स्त्री को देखकर ( नग्नस्त्रीका देखना शास्त्र-विरुद्ध होने के कारण ) आंखको बन्द किये हुए वे नल घूमती हुई दूसरी स्त्रीके साथ आघात (एक दूसरेका टक्कर) लगनेपर चकित हो गये / [इन्द्रके वरदानसे अन्तर्धान तथा परस्त्री-दर्शनका परिहार करने के लिए आंख मूंदे हुए स्थित नल जब स्वेच्छासे घूमती हुई किसी स्त्रीका ठोकर लगी तो 'अरे यह किसकी ठोकर लगी ?' यह सोचते हुए सहसा चकित हो गये ] // 13 // अनादिसर्गनजि वानुभूता चित्रेषु वा भीमसुता नलेन / जातैव यद्वा जितशम्बरस्य सा शाम्बरीशिल्पमलाक्ष दिक्षु // 14 // अनादीति / अनादौ सर्गसजि सृष्टिपरम्परायां वा, कचिजन्मान्तर इत्यर्थः / चित्रेषु आलेख्येषु, अनुभूता। अस्यन्तामनुभूतेऽर्थे भ्रमासम्भवादिति भावः / यद्वा, मास्वनुभन इति शेषः। किंतु, जितशम्बरस्थ मायिनोऽपि मायिनः, कामस्य शाम्ब.
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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