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________________ नैषधमहाकाव्यम् / अमुष्य विद्या रसनापनर्तकी त्रयीष नीताजगुणेन विस्तरम् / अगाहताष्टादशतां जिगीषया नवद्वयद्वीपपृथग्जयश्रियाम् // 5 // अथास्यापरा अपि चतम्रो विद्याः सन्तीत्याह-अमुष्येति / अमुष्य नलस्य रसनाप्रनर्तकी जिह्वान पश्चारिणीत्यर्थः / विद्या पूर्वोक्ता सूद विद्या चेति गम्यते, रसनानन· तिवधादिति भावः / त्रयीव त्रिवेदीव 'इति वेदासयत्रयीत्यमरः / अङ्गाना 'शिक्षा कल्पो व्याकरणं निलकं छन्दसां चितिः। ज्योतिषश्चेति विज्ञेयं षडङ्गं बुधसत्तमरि' स्युकानां षण्णां मधुराग्लकषायलवणकटुतिक्तानाच रसानां षण्णां गुणेन आवृत्या वैशिष्टयेन च, अथ च अनगुणेन शरीरसामन्येन स्वकीयग्युत्पत्तिविशेषेणेति यावत् , विस्तरं वृद्धि नीता प्रापिता सती नवानां द्वयं नवयं लक्षणया अादशेत्यर्थः, तेषां दीपाना पृथग्भूता जयश्रिया तासां जिगीषया म्यञ्जकाप्रयोगात् गम्योत्प्रेक्षा। जेतुमिच्छयेवेत्यर्थः, भष्टादशताम् अगाहत अमजत / पूर्वोक्तासु चतुर्दशसु विद्यासु विशिष्टव्युत्पत्या आयुवदादीनामनुशीलनसौकात तरपारदर्शिवेन, सूदविद्यापरे च षण्णां रसानाम् उक्षणानुषणसमतारूपत्रैविध्येन त्रयीपक्षे च एकैकवेदस्य प्रत्ये. कशः अङ्गानां शिक्षादीनां पाविश्यवैशिष्टयेन चाष्टादशस्वसिद्धिः / प्रागुशाश्चतुर्दश विचाः / 'मायुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चेति ते त्रयः। अर्थशास्त्रं चतुर्यन्त विद्या मष्टादश स्मृता' इति / अविधागुणनेन अय्या अष्टादशस्वमित्युपाध्याय-विश्वेश्वरभट्टारकव्या. ज्याने तु मनानि वेदासरवार इत्याथर्वणस्य पृथग्वेदस्वे त्रयीवहानिः / वय्यन्तर्भावे तु नाशवशत्वसिदिरिति चिस्यम् / उपमोस्प्रेषयोः संसृष्टिः // 5 // इस ( नल ) के जिह्वाग्रपर सदा नृत्य भात निवास करनेवाली विधाने (व्याकरणादि छः) भोंसे गुणा करनेपर विस्तारको प्राप्त (ऋक्-यजुः सामवेदरूप ) त्रयीके समान मानो अठारर दीपोंकी विजयलक्ष्मीको अलग-अलग जीतनेकी इच्छासे अठारह संख्यात्व को प्राप्त कर लिया है। (अथवा-इस नलके रसनाग्रपर नृत्य करनेवाली जो बुद्धि है, बह.....। अर्थात इनको बुद्धिने अठारह संख्यात्वको इस लिए प्राप्त किया है कि मैं भठारह दोपोंको नाकत बयोको पृथक् पृथक् जोत लू। जिस प्रकार कोइ नर्तको शिर. हाथ आदि छः मङ्गों, ग्रीवा-इ.हु आदि छः प्रत्यङ्गों तथा भ्र-नेत्रादि छः उपागोंसे विस्तारको प्राप्त कर अष्टादश संख्यावाली हो जाती हैं / अथवा-नलने अठारह दीपोंको जीतकर भठारह बपत्रियों को प्राप्त कर लिया है, अत एव मैं मी अठारह दीपोंकी अयश्रीको बीत लू, इस मावनासे इनकी उक्तरूपा विद्याने मी अठारह संख्याको प्राप्त कर लिया। अषवा-न पाकशासके महापण्डित थे, अतः इनकी पाकशास्त्र विधाने 'मधुर-अम्झबबण-कटु-कषाय और तिक' रूप छः रसोंके न्यून-मधिक और समरूप प्रकार से (341 = 18) विस्तार को प्राप्तकर अठारह संख्याको प्राप्त कर लिया है, यथामधुर द्रभ्यमें दूसरे मधुर इम्मको न्यूनमात्रा तिक्त द्रम्पमें अधिक मात्रा में मौर अम्क
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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