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________________ प्रथमः सर्गः तेति कैमुत्यन्यायेनार्थान्तरापत्या अर्थापत्तिरलङ्कारः। तदुकम्-'एकस्य वस्तुनो भावाद् यन्त्र वस्स्वन्यथा भवेत् / कैमुत्यन्यायतः सा स्यादर्यापत्तिरलकिया।' इति // 3 // जिस ( नल ) की कथा इस ( कलि ) युगमें संसारको पवित्र (निर्दोष ) करती है, वह नलकथा मलिन भी स्वसेबिना अर्थात् दोषयुक्त मेरी वाणीकी शृङ्गारादि रसोंसे धोये हुए के समान क्यों नहीं पवित्र ( दोषहीन, पक्षा-स्वच्छ ) करेगी ? अर्थात् अवश्य करेगी। [ जिस प्रकार जलसे धोयी हुई कोई वस्तु स्वच्छ एवं निर्दोष हो जाती है, उसी प्रकार नलकथा 'कर्कोटकस्य नागस्य ... ...' इत्यादि वचनों के अनुसार मलिन भी स्वसेविनी मेरी वाणीको अवश्यमेव निदोष करेगी, इसी कारण मैं श्रीहर्षकवि अन्य कथाभोंको छोड़कर नल-कथाका ही वर्णन करता हूँ ] // 3 // अधीतिबोधाचरणप्रचारणेदशश्चतस्रः प्रणयन्नुपाधिभिः / चतुर्दशत्वं कृतवान् कुतस्स्वयं न वेद्मि विद्यासु चतुर्दशस्वयम् / / 4 / / ___अस्य सर्वविद्यापारदशित्वमाह-अधीतीति / अयं नलः चतुर्दशसु विद्यासु 'अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः। धर्मशास्त्रं पुराणञ्च विद्या घेताश्चतुर्दशे'त्युक्तासु अधीतिरध्ययनं गुरुमुखात श्रवणमित्यर्थः। बोधः, अर्थावगतिः, भाचरणं तदर्थानुष्ठानं, प्रचारणम् अध्यापनं शिष्येभ्यः प्रतिपादनमित्यर्थः, तैश्चतुर्भिः उपाधिभिः विशेषणः आचरणविशेषैरित्यर्थः / 'उपाधिर्धर्मचिन्तायां कैतवे च विशेषणे'इति विश्वः / चतस्रो दशाः अवस्थाः प्रणयन् कुर्वन्नित्यर्थः, स्वयं तस्रो दशा यासा तासां भावः चतुर्दशस्वं स्वतलोगुणवचनस्येति पुंवद्भावो वक्तव्य, इति स्त्रियाः पुंवद्भावः। 'संज्ञाजातिव्यतिरि. ताश्च गुणवचना' इति सम्प्रदायः। चतुर्दशसंख्याकत्वं कुतः कस्मात् कृतवान् न वेनि न जाने इति स्वतः सिद्धस्य स्वयङ्करणं कथं पिष्टपेषणवदिति चतुर्दशानां चतुरावृत्ती षट्पञ्चाशत्त्वात् कथं चतुर्दशस्वमिति च विरोधाभासद्वयम् / चतुरवस्थरवमिति तस्प. रिहारश्च / तदुक्तम् 'आभासत्वे विरोधस्य विरोधाभास उच्यते' इति // 4 // .. (द्वितीय इलोकमे नलको 'गुणाद्भुत' कहा गया है, उसीका यहां प्रतिपादन करते है-) अध्ययन, अर्थशान, तदनुसार आचरण तथा प्रचार अर्थात ब्राह्मणों को द्रव्यादि देकर शिष्योंको अध्यापन कराना-इन प्रकारोंसे चार दशाओं को करते हुए इस नरुने स्वयं चौदह विद्याओं में चतुर्दशत्व क्यों किया ? यह मैं नहीं जानता। [मो विद्याएँ स्वयं चौदह थीं, उनको चतुर्दशत्व करना पिष्टपेषण के समान निरर्थक है / अथवा चौदह विद्याओं में से प्रत्येकको अध्ययन, अर्थशान, आचरण तथा प्रचाररूप चार दशाओंसे (1444 % 6 ) छप्पन करना चाहिए था, फिर चरर्दशत्वं अर्थात् चौदह ही क्यों किया ? इस प्रकार विरोध. कद्वयका परिहार 'चौदह विद्याओं को चार दशा ( अवस्था ) ओं वाली फिया' अर्थ द्वारा करना चाहिए। नल चौदहों विद्याओं के अध्यक्ष, शाता, आचरणकर्ता तथा प्रचारक थे। क्षत्रियको अध्यापनका निषेध होनेसे विद्वान् ब्राह्मणको धनादि देकर शिष्याध्यापन कराने में दोषामाव समझना चाहिये] // 4 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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