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________________ पञ्चमः सर्गः 303 अत एव धनादपि / किंबहुना, जीवितादपि गुर्वी अधिका सा भीमजा दमयन्ती च। मे हदि हृदये, परं सम्यगास्ते / किंतु मम स्वमेव न भवति / अद्याप्यस्थकरणा. दस्वत्यादेयत्वात् / स्वरवेऽपि देयं दारसुताहसे' इति दाराणां दाननिषेधाच विचा. रस्तदवस्थ एवेति भावः // 82 // धन तथा मेरे प्राणोंसे भी श्रेष्ठ भीमकुमारी दमयन्ती केवल मेरे हृदय में है (वाहरमें नहीं है तथा बाहरसे स्थित वस्तुको ही किसी के लिये दिया जा सकता है, अथ च ) पृथ्वी(विशालतम ) भी जिसके सोलहवें भागके (रुपये में एक आना) भी योग्य नहीं, वह दम. यन्ती मेरा धन नहीं है [ वह दमयन्ती मेरे हृदयमें बसी हुई है, किन्तु विधिवत् पिताके द्वारा कन्यादान ( या उसके द्वारा स्वयंवरण) न करनेतक उसपर मेरा अधिकार नहीं है, अपने अधिकारकी वस्तुको ही कोई किसीके लिये दे सकता है, अधिकारसे बाहरकी वस्तुको नहीं / अथवा-जिस दमयन्तीके सोलहवें भागके योग्य मेरा स्वरूप ही नहीं है, फिर सम्पूर्ण पृथ्वी कैसे होगी 1 अथवा-मेरे जीवन तथा पृथ्वीरूप पनसे भी अधिक वह दमयन्ती मेरे हृदयमें ही रहती है, अत एव तथा स्त्री. पुत्रके दानका शास्त्रीय निषेध होनेते उसे नहीं दिया जा सकेगा-इन्द्र उसे नहीं पा सकते ] // 82 // मीयतां कथमभीप्सितमेषां दीयतां द्रुतमयाचितमेव / तं धिगस्तु कलयन्नपि वाञ्छामर्थिवागवसरं सहते यः // 3 // पुनर्विचारमेवाह-मीयतामिति / एषामभीप्सितं वस्तु कथं मीयतां ज्ञायेत / ज्ञानस्योपयोगमाह-अयाचितं यथा तथा द्रतं कथं दीयताम, दासब्यमित्यर्थः। तर्हि, अर्थिवाचैव विज्ञाय दीयतामित्यत आह-यो दाता वान्छामर्थ्याकांक्षां कलयन् जानन्नपि / भर्थिवागवसरं सहते यात्राकालं प्रतीक्षते, तं दातारं धिगस्तु / स गई इत्यर्थः // 83 // इन (इन्द्रादि ) का इष्ट कैसे जाना जाय ? ( या बिना माने हो) शीघ्र दे दिया जाय ('' के स्थानपर 'कथं पाठ ठीक है, उसी पाठमें 'विना बाने कैसे दे दिया जाय ? यह अर्थ प्रकरणसंमत होता है ) / याचकों की इच्छा ( 'यह मुझसे मांगना चाहता है। ऐसी इच्छा ) को जानता हुआ भी जो 'दाता' याचकके कहनेकी प्रतीक्षा करता है, उस दाताको धिक्कार है / [ श्रेष्ठ दातालोग 'याचक मुझसे मुंह खोलकर किसी वस्तुको मांगे, तब मैं उसको दूगा' ऐसा नहीं करते, किन्तु 'यह मुझसे मांगना चाहता है। इतना ही मानकर उसके लिये अपरिमित दान दे देते हैं, क्योंकि वे याचकके याचनाजन्य दोन वचनको सुनना पसन्द नहीं करते ] // 83 // 1. 'कथ-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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