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________________ 260 नैषधमहाकाव्यम् / दिवं विहाय भुवं गच्छत्तीत्याश्चर्य पश्येत्यर्थः / स्वयं कश्यपसुतस्तरसुतां भगिनीमेव गच्छतीत्याश्य ग्यज्यते // 53 // देवराज इन्द्र के मुनते रहनेपर किसी देवाङ्गनाने इन्द्र के विषयमें माननेकी इच्छा करने वाली किसी अन्य देवाङ्गनासे कहा-'सौ (अश्वमेध ) .यश करनेवाला यह कश्यप मुनिका पुत्र (इन्द्र ) कश्यप पुत्री अर्थात् काश्यपी ( पृथ्वी ) को जाना चाहता है, देखो' / ( एक मुनिका पुत्र जिसने सौ अश्वमेष यशके फलस्वरूप दुर्लभ इन्द्रपद प्राप्त किया, वह पुनः पृथ्वी को जाना चाहता है, यह बड़ी मूर्खताकी बात है देखो। अथवा-एक महामुनिका पुत्र उसमें भी सौ यज्ञ करनेवाला यह कश्य+प= कश्यप ( मद्यपी) की पुत्रीके साथ संगम करना चाहता है, यह देखो, ऐसा तो एक पामर भी नहीं करेगा, उसमें भी एक मुनिपुत्र और महायाशिक ऐसा काम करे, यह बड़े खेद तथा आश्चर्यकी बात है। अथवा-कश्यप मुनिका सौ यज्ञ करनेवाला यह पुत्र कश्यप मुनिकी पुत्री ( अपनी बहन ) के साथ संगम करना चाहता है, इसका महानीचतापूर्ण यह कार्य देखो। अथवा-मद्यपानकर्ताका पुत्र मद्यपानकर्ताकी पुत्रीके साथ संगम करना चाहे, यह कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि मद्यपानकर्ताके पुत्रका महायाशिक होकर भी ऐसा कार्य करना कोई आश्चर्य नहीं होता। वह पतित होनेसे जो कुछ नीचतम कार्य कर दे, वह थोड़ा ही है। पाठभेदमें-सौ क्रोध ( पक्षान्तरमें-सौ यज्ञ) लक्षणासे तज्जन्य सौ अपराध करनेवाला व्यक्ति ऐसा नीच कार्य करे यह कोई आश्चर्य नहीं है / इन्द्रने लोकापवादको भी कोई चिन्ता नहीं की ] // 53 // आलिमात्मसुभगत्वसगर्वा कापि शृण्वति मघोनि बभाषे। वीक्षणेऽपि सघणासि नृणां किं यासि न त्वमपि सार्थगुणेन // 54 // __ आलिमिति / आरमनः सुभगत्वेन सगर्वा सुभगमानिनीत्यर्थः / कापि, मघोनि शक्रे शृण्वति सत्येव, भालिं सखीं बभाषे / तदेवाह-नृणां मनुष्याणां वीक्षणेऽपि / किमुत समताविस्यर्थः / सघृणा सजुगुप्सासि / सा त्वमपि सार्थगुणेन सधधर्मेण, गतानुगतिकस्वरूपेणाविवेकिस्वेनेति यावत् / न यासि किम् ? विवेकेन चेन यास्य. वेत्यर्थः // 54 // इन्द्र के सुनते रहनेपर अपने सौन्दर्यका अभिमान करनेवाली किसी देवागनाने सखीसे कहा-'मनुष्यों को देखने में भी घृणा करती हो ? ( फिर सङ्गति करना कैसे सम्भव है ?), तुम भी इन्द्र के सहचर समुदायके गुणसे अर्थात सहचर पनकर ( भूलोकमें ) क्यों नहीं जाती हो 1 अर्थात् जाओ / [ जो तुम मनुष्यों में घृणाकर मर्यकोकको इन्द्र के साथ नहीं जाती और इन्द्र उसी मानुषी के साथ विवाह तक करने के लिए (केवळ देखने या सम्माषणमात्र करने के लिये ही नहीं ) मा रहा है, अतः तुम इन्द्रसे भी अच्छी हो। अथवा-..'क्या तुम गुण (प्रेमरूप रस्सी ) से बंधकर इन्द्रके साथ नहीं जाभोगी अर्थात अवश्य जामोगी। अथवा-सहचर गुणसे ( गतानुगतिक न्यायसे इन्द्र के साथ ) नहीं जाओगी क्या ? अर्थात
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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