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________________ पञ्चमः सर्गः 281 करते समय उसका कोई लेशमात्र भी तत्त्व बाहर न निकल जाय, इसलिये उस भौषधको दो सकोरों में बन्दकर ऊपरसे कपड़कूट मिट्टी का लेप कर देते हैं, तब वह औषध लेशमात्र भी बाहर नहीं निकलने पाता और भीतरमें तप्त होकर जलता है। इसके प्रतिकूल किसी वस्तु या औषधका खुला पाक करते हैं तो उसकी सुगन्ध आदि बाहर फैल जाती है तथा वह वस्तु भी बल जाती है / इसी प्रकार प्रकृतमें मेनकाने सन्ताप तथा आकारगोपनरूप दो तकोरों के मध्यमें स्थित अपने हृदयरूपी औषधको पकाते हुए बड़े कष्टका अनुभव किया तथा वह कष्ट देर तक होता रहा, खुले हुये पाकके समान शीघ्र नष्ट नहीं हुआ। मेनकाको इन्द्र के भावी विरहसे अत्यन्त कष्ट हुआ ] // 51 // उर्वशी गुणवशीकृतविश्वा तत्क्षणस्तिमितभावनिभेन | शक्रसौहृदसमापनसीम्नि स्तम्भकार्यमपुषद्वपुषैव / / 52 / / उर्वशीति / गुणैः सौन्दर्यादिभिवंशीकृतविश्वा रञ्जिताखिलप्रपञ्चा, उर्वशी नाम काचिद्देवी, तस्वणे तत्समये, यः स्तिमितभावःस्तैमिस्यं निक्रियानत्वलक्षणः स्तम्भो नाम सात्विकस्तस्य निभेन मिषेण / 'मिषं निभञ्च निर्दिष्टम्' इति हलायुधः / वपु. षैव सुहृदयशब्दाद्यवादिस्वादण्प्रत्यये हृद्भावासोभयपदवृद्धिः। अत एव 'सौहृददौ. हदशब्दावणि हृद्भाचौ' इति वामनः / शकसौहृदस्य समापनसीग्नि समाप्तिस्थाने, स्तम्भकार्य जाव्यकृत्यं, स्थूणाकृत्या, अपुषत् / 'स्तम्भः स्थूणाजडत्वयोः' इति विश्वः / स्तम्भोत्थानावधिकं मे शक्रसौहद मिति निर्णयमकरोदित्यर्थः। 'पुषादि' इत्यादिना श्लेरडादेशः॥५२॥ गुणसे संसारको वशीभूत करनेवाली उर्वशीने उस समय (इन्द्रका मानुषीको चाहना करने की बात सुननेके समय) जड़ताके व्याजसे इन्द्र के अनुरागकी समाप्तिको सीमाके स्तम्म ( स्तम्भरूप सात्त्विक भाव, पक्षान्तरमें-पत्थर भादिका खम्बा) को शरीरसे ही बतला दिया। [जिस प्रकार लोकमें किसी सीमाका निश्चय करने के लिये वहां पत्थर मादिका खम्बा गाड़ दिया जाता है, उसी प्रकार इन्द्र के भावी विरहको सुनकर उर्वशी स्तम्भ नामक सात्त्विक भावको व्यक्त किया। उर्वशी इन्द्रके भावी विरह कल्पनासे जड़ हो गयी ] // 52 // कापि कामपि बभाण बुभुत्सुं शृण्वति त्रिदशभर्तरि किञ्चित् / एष कश्यपसुतामभिगन्ता पश्य कश्यपसुतः शतयज्ञः / / 53 / / अथ कासाश्चिदप्सरसां वागारम्भानाह-कापीत्यादि / कापि देवी, बुमुसुमिन्द्र जिगमिषितं देशं जिज्ञासमानां कामपि देवीं त्रिदशर्तरि इन्द्रे शृण्दति सत्येव / तच्छ्वणार्थमेवेत्यर्थः / किशिद्धमाण : किं तदाह-कश्यपसुतः शतयशो बहुयाजी एष इन्द्रः, कश्यपसुतां काश्यपी, चितिमभिगन्ता अभिगमिष्यति / गमलुट / पश्य / 1, 'शतमन्युः' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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