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________________ चतुर्थः सर्गः 251 समासार्था' इत्यमरः। 'संज्ञायां समजनिषदे'स्यत्र संपूर्वादस्यतेर्बाहुलकः क्या, इति चीरस्वामी / गिरं व्यरचयत् / पूर्वाध सखीजनसमस्या, तदुत्तरवेनोत्तरार्ध स्वयमरचयदित्यर्थः // 11 // इसके बाद हृदयरूप मर्मस्थळमें मन्मथ ( मनको मथन करनेवाले कामदेव ) के बाणोंसे अतिशय घायल होकर बोलने में असमर्थ वह दमयन्ती प्रिय (अतएव दमयन्तीके मनोगत भावको समझनेवाली ) सखी-गणके साथ आधी समस्यासे बोलने लगी (आधी बात सखीगणके कहनेपर शेष आधी बात को दमयन्ती पूरा करने लगी)। [जो विषय या श्लोकादिका अंश अपूर्ण रहता है, उसको अन्य व्यक्ति पूरा करता है और स्वयं अधिक बोलने में अशक्त होने पर अपने वक्तव्य विषयको वह असमर्थ व्यक्ति समास अर्थात संक्षेप करता है] // 10 // अकरुणादव सूनशरादसून सहजयाऽऽपदि धीरतयाऽऽत्मनः / असव एव ममाद्य विरोधिनः कथमरीन् सखि ! रक्षितुमात्थ माम् // अकरुणादिति / हे भैमि ! भापदि सहजया धीरतया धैर्येण / 'विपदि धैर्यमिति नीतेरिति भावः / अकरुणाभिर्दयाद् सूनशरात् कुसुमेषोः, आस्मनः स्वस्यासून प्राणान् अव रक्ष / अद्येदानीमसव एव मम विरोधिनः शत्रवः / तन्मूलस्वात् दुःख. संवेदनस्येति भावः / हे सखि ! मां कथमरीन् रचितुमात्थ ब्रवीषि ? 'अवः पश्चानाम्' इति साधुः / सम्प्रति मे प्राणरमणमाशीविषपोषणं पयोभिरिति भावः // 102 // (अब यहांसे भारम्भकर श्लो० 109 तक प्रथम वाक्य दमयन्तीके सखियोंका तथा मन्तिम वाक्य उत्तररूपमें कहा गया दमयन्तीका समझना चाहिये ) सखी कहती है कि-हे सखि दमयन्ती ! निर्दय पुष्पबाण (कामदेव ) के बाणोंसे अपने प्राणों को आपत्तिमें अपनी स्वामाविक धोरताके द्वारा बचावो / दमयन्ती कहती है कि-हे सखि ! आज मेरे प्राण ही विरोधी हैं, ( अतः तुम ) शत्रुओं को बचाने के लिये मुझसे क्यों कह रही हो ? [कोई तटस्थ व्यक्ति भी शत्रुओंको बचाने के लिये नहीं कहता, तब तुम प्रिय सखी होकर ऐसा क्यों कह रही हो ? यदि मेरे प्राण नहीं रहते अर्थात् मैं मर जाती तो मुझे इतनी व्यथा नहीं सहनी पड़ती, अत एव शत्रुरूप इन प्राणों को बचानेका परामर्श देना तुम्हारी-जैसी प्रिय सखीको उचित नहीं जचता] // 102 // 1. 'क्यप' इत्युचितम् तेन क्यङोऽविधानात् / अमर (नामलिङ्गानुशासन) स्य 'समस्या' शब्दण्याख्याने च 'अपूर्णस्वाद्विक्षिप्त (विवक्षित) समस्यते संक्षिप्यते. ऽनया समस्या, 'संज्ञायां समजे'ति बाहुलकात् क्यप , 'ऋहलोर्ण्यत्' वा, संज्ञापूर्व. कत्वाद् वृदयमावः / समारक्यचि 'सर्वप्रातिपदिकेभ्योः' सुगागम इत्येके, ततः भ प्रत्ययात् / यथा-'दामोदरकरराघातविह्वलीकृतचेतसा / इष्टं चाणूरमप्लेन शतचन्द्र नमस्तलम् // इति सी० स्वा० व्याख्या दृश्यते /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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