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________________ 250 नैषधमहाकाव्यम्। तुम्हारे मित्र मधु अर्थात् वसन्त ऋतुको छोड़कर 'मधु' नामक दैत्यको मारकर क्या किया ? अर्थात कुछ नहीं। (अथवा-अच्छा नहीं किया जो वसन्तको छोड़कर मधुदत्यको ही मारा)। [मिस शिवजीका अवतार संसारका संहार करने के लिये माना जाता है, उन्होंने तो मदन को जलाकर संसारका पालन किया, किन्तु जिस विष्णु भगवान्का अवतार संसारकी रक्षा करने के लिये माना जाता है, उन्होंने मदन-मित्र वसन्तको छोड़कर 'मधु' दैत्यको मारकर कुछ नहीं किया। मधु दैत्यसे भी संसार बहुत पीड़ित था, अतः उसे मारकर भी यद्यपि विष्णु भगवान्ने संसारका उपकार ही किया है, किन्तु यह मदन-मित्र वसन्त उस (मधु. देस्य) से भी अधिक संसारको सता रहा है, अतः पहले उसे ही मारना भावश्यक था]॥१९॥ इति कियद्वचसैव भृशं प्रियाधरपिपासु तदाननमाशु तत् / अजनि पांसुलमप्रियवाग्ज्वलन्मदनशोषणबाणहतेरिव / / 100 // इतीति। प्रियस्य नलस्याधरमोष्ठं पिपासु पातुमिच्छु'मधुपिपासुप्रभृतीनां गग्या. दिपाठात् समास' इति वामनः / तत् प्रसिदम, तस्याभैम्या माननम्, इतीत्थं किया इचव, अप्रियवाग्मिनिष्ठुरोतिमिः,ज्वलतः क्रुष्यतो मदनस्य या शोषणवाणः तस्य हतेः प्रहारादिवेति हेतूस्प्रेक्षा। आशु भृशं, पांसुलं पांसुमद् अजनि जातम् // प्रिय नलके अधर ( रस ) को पौनेकी इच्छा करनेवाला वह प्रसिद्ध सुकोमल सर्वसुन्दर तथा सरस ( या विरहपाण्डुर एवं क्षीण ) उस दमयन्तीका मुख इन कुछ (चन्द्रमा, कामदेव, वसन्त तथा मलवायुके प्रति ) उपालम्मरूपमें (इलो० 44-99) कहे गये थोड़े ही बचनसे मानो अप्रिय कहनेसे ( क्रोधकर ) जलते हुए कामदेवके शोषण बाणके प्रहारके कारण अत्यन्त सूख गया (पक्षान्तरमें-धूलियुक्त हो गया)। [ भन्य किसी प्यासे व्यक्तिका मी मुख थोड़ा पोकनेसे भी सूख जाता है, और वह अधिक बोलने में सर्वथा असमर्थ हो जाता है / इस पद्यमें दमयन्तीकृत आत्मनिन्दा सुनकर कामदेवके द्वारा छोड़े गये शोषण बाण-प्रहारको दमयन्तीके मुखको सूसनेमें हेतु कहा गया है। और पहलेसे ही क्षीण ( थोड़े बलवाले ) तडाग आदिमें शोषणकारक तीव्र सन्तापसे धूल उड़ने लगती है। लोकमें मी 'बहुत देरसे प्यास लगनेके कारण मेरे मुखमें धूल उड़ रही है, मैं अधिक बोल नहीं सकता' ऐसा कहते हैं। विरह-क्षीण दमयन्ती इतना कहने के बाद अधिक बोलने में असमर्थ हो गयी ] // 10 // प्रियसखीनिवहेन सहाथ सा व्यरचयगिरमर्धसमस्यया। हृदयमणि मन्मथसायकैः क्षततमा बहु भाषितुमक्षमा // 101 // प्रियसखीति / अथ सा दमयन्ती, मन्मथसायकैः हृदयमर्मणि चततमा गाढं प्रहता। अत एव बहु भाषितुं प्रपन्य वक्तुमसमा सती, प्रियसखीनिवहेन सह आप्तसखीसधेन सार्धम, अर्द्धरूपया समस्यया संग्रहकारिकया। 'समस्या तु
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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