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________________ चतुर्थः सर्गः / " विरहिभिर्बहुमानमवापि यः स बहुलः खलु पक्ष इहाजनि / तदमितिः सकलैरपि यत्र तैय॑रचि सा च तिथिः 'किममा कृता॥ पिरहिभिरिति / या पो विरिहमिः बहुमान सरकारमवापि प्रापितः, जीव. माणचन्द्रवादिति भावः। अवपूर्वादाप्नोतेयन्तात् कर्मणि लुइ। 'गतिपुद्धि'इत्यादिना अणि कर्तुः कर्मस्वम् / ण्यन्ते 'कतुश्च कर्मणः' इत्यभिधानास विरहित मिबहुलतः पर इहास्मिन् लोके, बहुप्रकार, लाति आदत्त इति ज्युस्पस्या बहुल: 'मातोऽनुपसर्गे क' न तु 'बहोल' इति भावः / अननि जातः / अश्विरपुत्प्रेस। किन तथापि, यन्त्र यस्यां तियो सकलैरपि तैर्विरहिमिः तदमितिस्तस्य बहुमानस्वा. मितिरपरिमितिम्बरचि अकारि / नष्टचन्द्रस्वादिति भावः / सा च तिथि: अमा अमितिबहुमानस्यास्यामिति व्युत्पत्या अमा, अमानामिका कृता किम् ? मातेमा. बाथै सम्पदादिकिपि नम्समासे मत्वर्थीये चाकारप्रत्यये 'पस्येति चेति लोपे 'मजा. चतराप'। न स्वमा सहभावोऽस्या सूर्याचन्द्रमसोरिति व्युत्पश्येत्युस्प्रेचा। अमेति सहाथै अध्ययं, ततो भावप्रधानान्मश्वर्थीयाकाराद्वाप // 13 // जिस पक्षने विरहियोंसे अधिक सम्मान पाया, वह पक्ष इस संसार में पहुक' (बहुत मानको लेनेवाला) अर्थात कृष्णपक्ष हुआ। ( उसमें भी) जिसमें उन्हीं (विरहियों) ने इस सम्मानको अपरिमित (अत्यधिक होनेसे परिमाणरहित ) कर दिया, वह तिथि 'ममा की गयी अर्थात अमावास्या कहलायी क्या ? अथवा-निश्चय ही अमा की गयी। [निर• हियों के लिए कृष्णपक्ष कम चन्द्रदर्शन होने से मुखदायी होता है और अमावस्या तिथि सर्वथा चन्द्रदर्शन नहीं होनेसे अधिक सुखदायिनी होती है ] // 6 // स्वरिपुतीक्ष्णसुदर्शनविभ्रमात किमु विधु ग्रसते न विधुन्तुदः / निपतितं वदने कथमन्यथा बलिकरम्भनिभं निजमुल्झति / / 64 // * स्वेति / विधुन्तुदो राहुः, विधुं चन्द्रं, स्वरिपोर्विष्णोस्तीपणं निशितं यत् सुदर्शनं सविति विभ्रमात् सारश्यमूलभ्रमात्र प्रसते किमु तालुच्छेदमयादिति भावः। अन्यथा भयाभावे, बदने निपतितं वक्त्रान्तर्गतम् / अत एव, निजं स्वावतं, बलि. कम्मनिभम् उपहृतवण्युपसिकसक्तुसाशं, स्वाधिष्ठितमित्यर्थः / 'करम्भा पधिस.. क' इत्यमरः / एनमिति शेषः / कपमुज्जति उद्विरतीस्युप्रेत . वह राहु अपने शत्रु (विष्णु) के तीक्ष्ण सुदर्शन चक्र का.अतिशय भ्रम होनेसे चन्द्रमा को नहीं पास करता ( खाता) है क्या ? भन्यथा ( यदि अतिशय प्रम नहीं होता तो) मुखमें पड़े हुए अपने पक्केि करम्म (अपनी पूजाके ब्येि दिये गये दही और सत्तचन्द्रमा भी दहीमें साने गये सत्तके गोले के समान श्वेतवर्ण होता है) के समान (चन्द्रमा को) क्यों छोड़ देता है / [ मालूम पड़ता है गोलाकार चन्द्रमाको देखकर राहुको उसी १.किममीकता' इति पाठान्तरम्। 2. '' इति पाठान्तरम् / 16 नै
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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