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________________ 230 नैषधमहाकाव्यम् / असितमेकसुराशितमध्यभून्न पुनरेष पुनर्विशदं विषम् / अपि निपीय सुरैर्जनितक्षयं स्वयमुदेति पुनर्नवमार्णवम् // 61 // असितमिति / भाणवमर्णवे जातं, 'तत्र जातः' इत्याप्रत्ययः। अशितं मेचर्क विष कालकूटाम्पमेकेनैव सुरेण महादेवेन, अशितं गिलितमपि, पुनर्नाभूनाजनि / एष चन्द्रो नामार्णवं विशदं विषं पुनः सितविषं तु, सुरैर्बहुभिर्देवैः 'प्रयमा पिवते बहि' रित्याउकामेण, निपीय जनितपयं कृतनाशमपि, स्वयं नवं तदपेणैव, पुनसदेत्यागछतीति व्यतिरेकः // 6 // ____समुद्रसे उत्पन्न कृष्णवर्णके ( कालकूट ) विषको एक देवता अर्थात केवळ महादेवजीने खाडिया तो वह फिर उत्पन्न नहीं हुमा मौर समुद्रसे ही उत्पन्न इस (चन्द्ररूप) श्वेतवर्णके विषको बहुत देवतामोंने अच्छी तरह पानकर इसका क्षय कर दिया, तब भी यह (चन्द्ररूप श्वेत विष) फिर स्वयं उत्पन्न होता है। जिस कृष्ण वर्ण अर्थात दुख कारकूट विषको केवल एक महादेवजीने खाया अतः उसे फिर उत्पन्न होना सम्भव है, न कि श्वेत वर्ण होनेसे उत्तम चन्द्ररूप बिस विषको अनेक देवताओंने बार 2 पानकर नष्ट कर दिया है, उसे बार बार स्वयं ( किसीसे बिना सहायता पाये ) उत्पन्न होना / अतएव चन्द्रमा हो कारकूटसे मी अधिक तीव्र विष है। [चन्द्रकलाको देवतालोग कृष्ण पक्षमें पान करते हैं, ऐसा शास्त्रीय सिद्धान्त है ] // 61 // विरहिवर्गवधव्यसनाकुलं कलय पापमशेषकलं विधम् / सुरनिपीतसुधाकमपापकं ग्रहविदो विपरीतकथाः कथम् // 62 // विरहीति / हे सखि ! विरहिवर्गवधे व्यसनेनासक्रया, आकुलं सकुलं, सशब्दम् अशेषकलं पूर्णकलं, विधुं पापं कळप करं विद्धि सुदैनिपीता सुधा यस्य तं वीणमि. स्यर्थः / शैषिकः कप्समासान्तः। 'अपोऽन्यतरस्याम्' इति विकल्पाद् हस्वभावः / अपाप एवापापकस्तं सौग्यं कलय / तथा कार्यदर्शनादिति भावः। किंतु ग्रहविदो दैवज्ञास्तु कथं विपरीतव्याः 'कोणेन्दुभिपुत्राः पापास्तसंयुतो बुधः / पूर्णच. न्द्रबुधाचार्यशुक्रास्ते स्युः शुभमहाः // ' इत्येवं विरुवाचः / अनुभवविरोधादप्राचं तद्वाक्यमिति भावः॥१२॥ ___ (हे सखि ! तुम) विरही खी-पुरुष-समुदायके वधरूप निन्दित कर्मवाले ( पक्षान्तरमेंवर्षमें मासक्त अर्थात् मतिश्य संकग्न) पूर्णकलायुक्त चन्द्रमाको पापी और देवताभोंने विसको कला-सुधाका पान कर लिया है, उस ( कृष्ण पक्ष ) चन्द्रमाको पापरहित जानो किन्तु ज्योतिषी लोग उश्टा ( पूर्ण चन्द्र ग्रहको शुम तथा क्षीण चन्द्र ग्रहणको मशुम ) क्यों कहते हैं ? / [अथवा-बशेष ( सम्पूर्ण मर्याद 64) कलाओंसे युक्त विषु ( अच्युत ) को भी परोपकारी न होनेसे पापी तथा कलाहीन परोपकारी पतित या मूर्खको भी पुण्यात्मा समझो] // 12 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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