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________________ 226 . नैषधमहाकाव्यम्। - मुखरयस्वेति / हे हरिणलान्छन शशाङ्क ! यशसः नवडिण्डिम कीर्तिप्रकाशकं नूतनवाचविशेष मुखरयस्व मुखरं रवणं कुरु, अधुना जलनिधेस्वजनकस्य कुलमु. ज्ज्वलय प्रकाशय, वधूवधपौरुषमपि स्त्रीवधशौर्य, गृहाण स्वीकुरु / किंत, कुरिस. * तोऽयः कवर्थः पीडाकरः, 'कोः कत्तत्पुरुषेऽधि' इति कुशब्दस्य कदादेशः / कद क. रणं कदर्थना कदर्थनशब्दात् 'तस्करोति' इति ण्यन्ताधुच / तां मुश शीघ्र मारय / न पीडयेत्यर्यः। अत्र वधूवषस्यानिष्टत्वेनाविधेयस्य विधानात्। 'विषं भुरुचव' इतिवधिषेधपरो विध्यामासः / अनिष्टनिषेधाभासपराक्षेपालकारभेदः / तथा चालकारसूत्रम्-'अनिष्टं विध्यामासश्चेति // 53 // हे मृगलान्छन ( कलवी चन्द्रमा)१ अपने यशकी (पक्षान्तरमें-म+अयश""". अर्थात् अत्यन्त अयशकी) डुग्गी पिटवावो / जलनिधि (अपने पिता) के वंशको उज्ज्वल करो ( पक्षान्तरमें अपने पिताके वंशको अधिक दग्ध करो अर्थात नका डालो ), नोहत्याकी बहादुरी लूट को अर्थात् मुझे मार डालो; परन्तु कुत्सित मर्थना करना या अधिक यंत्रणा देना तो छोड़ दो। [पूर्वोक्त वाक्यों में एक पक्ष काकुद्वारा निन्दापरक तथा दूसरा पक्ष वास्त. विक कथनपरक है। कोई भी शूर व्यक्ति खोकी हत्या करनेसे यशकी डुग्गी नहीं पिटवाता, न उस निन्दित कर्मसे पिताके वंशको ही उज्ज्वल करता है और न तो उससे उस योद्धाको बहादुरीही मिलती है; अपितु स्त्री-इत्यासे अकीति होती है, पिताके 'कुलमे मानो माग लग जाती है (बचा-खुचा मी यश नष्ट हो जाता है)। किन्तु तुम बनिधि ( 'ड तथा ल' में अभेद होनेसे जडनिधि अर्थात् मूर्खतम पिताने मूर्ख पुत्र हो, मतएव तुम ऐसा निन्दित कर्म करते हो, यह ठीक ही है / मूर्खसे अन्य आशा भी क्या हो सकती है 1 // 53 // निशि शशिन् ! भज कैतषभानुतामसति भास्वति तापय पाप माम / अहमहन्यवलोकयितास्मि ते पुनरहर्पतिनिधुतदर्पताम् // 54 // निशीति / हे शशिन् ! पाप ! कर ! 'नृशंसो घातुकाकरः पापः' इत्यमरः। निशि मास्वस्यसति / कैतवमानुता कपटसूर्यस्वं भज / मां तापय, किं स्वहशाहनि, अहर्प तिना सूर्येण, 'भहरादीनां पत्यादिषु'इति रेफादेशः / ते तव, निर्धतर्पता निरहवा. रताम, अवलोकयितास्मि द्रज्यामीत्यर्थः। लुरि मिपि तासिप्रत्ययः। पापिष्ठाः स्वनाशमासम्ममपश्यन्तः परान् हिंसन्तीति भावः // 54 // ___ हे चन्द्रमा ! रातमें सूर्यके नहीं रहनेपर तुम कपटसे सूर्य बन लो और हे कर ! मुझे तपाभो; किन्तु मैं कल दिन में सूर्यसे तुम्हारे ममिमानको नष्ट हुभा अर्थात् सूर्य के सामने निष्प्रभ हुए तुमको देखूगी / [अन्य मी दुष्ट पड़ोंकी अनुपस्थितिमें हो दुष्टता करता है. उसकी उपस्थितिमें अर्थात् सामने पड़नेपर उस. दुष्टका घमण्ड दूर हो जाता है। तथा किसी के द्वारा सताया गया व्यक्ति प्रबलतम अन्य व्यक्ति के द्वारा सताने वालोंका अमि. मान नाश देखकर इषित होता है ] // 54 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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