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________________ 225 चतुर्थः सर्गः (डाले जाते हुए ) मन्दराचलसे भी तुम चकनाचुर नहीं हुए ? अथवा समुद्रको पी पानेवाले अगस्त्य मुनिकी जठराग्नि में भी तुम गल पच नहीं गये 1 / [उक्त दोनो बातें नहीं होनेसे हो मुझ-जैसे विरहिणियोंको इतना कह हो रहा है, यदि वैसा हो जाता तो भाज मुझ जैसे लोगों को कष्ट नहीं होता / अत्यन्त दाहक तथा पापी होनेके कारण उन दोनों ( मन्दराचल तथा अगस्त्य मुनि ) ने भी तुम्हें छोड दिया; हा! महाकष्ट है ] // 51 // किमसुभिर्गलितैर्जड! मन्यसे मचि निमन्जतु भीमसुतामनः।। मम किल श्रतिमाह तदर्थिकां नलमुखेन्दुपरां विबुधस्मरः / / 12 / / किमिति / हे जड मूढ ! गलितैर्निष्कामितेः, असुभिः, प्राणैः स्वमारणेनेत्यर्थः / भीमसुतामनो मयि चन्द्रे निमज्जतु निमज्जेत् / सम्भावनायां लोट् / इति मन्यसे किम् ? 'यत्रास्य पुरुषस्याग्नि वागप्येति वातं प्राणश्चक्षुरादित्यं मनश्चन्द्रदिशःश्रोत्रं पृथिवीं शरीरमाकाशमात्मौषधीर्लोमानि वनस्पतीन् केशा अप्सु रोहितं च रेतश्च निधीयत' इति श्रतिप्रामाण्यादिति भावः। सोऽपि वृथामिमान इत्याह-समृतम. नश्चन्द्रमेतीत्येवं रूपोऽर्थोऽभिधेयो यस्यास्तां तदर्थिका, शेषाद्विभाषा' इति कप्समा. सान्तः / 'प्रत्ययस्थास्कारपूर्वस्यात इदाप्यसुप' इतीकारः, श्रुति पूर्वोक्तवेदवाक्यम् / विबुधो देवो विद्वांश्च, स्मरः नलस्प मुखेन्दुः मुखचन्द्रः, परो मुण्यार्थो यस्यास्तां तत्पराम् / 'परं दूरान्यमुख्येषु' इति वैजयन्ती / मम आह किल ब्रूते सलु। विदूदुक एवार्थो ग्राह्य इत्यर्थः / परतोऽपि मे भर्ता नल एव नान्य इति भावः // 52 // हे जह चन्द्र ! 'मारनेसे भीमकन्या दमयन्तोका मन मुझमें लीन हो नायगा, अर्थात् दमयन्ती मुझे चाहने लगेगी' ऐसा समझते हो क्या 1 विद्वान् वेदव्याख्यानकर्ता ( पक्षान्त. रमें-स्मरणशील विद्वान् , या देवता ) काम ने निश्चय ही मुझसे उस अति (वेदमन्त्र) का अर्थ नलका सुख रूप बतलाया है (अतएव मैं मरकर भी नको ही जन्मान्तरमें भी चाहूँगी, तुम्हें कदापि नहीं)। [ 'यत्रास्य पुरुषस्याग्नि........." श्रुतिके अनुसार मृत प्राणीका मन चन्द्रमामें लीन हो जाता है, इस कारण चन्द्रमा का वैसा सोचना समझ. कर दमयन्तीने कहा है कि उक्त अतिका 'मरनेपर प्राणियों के मनका चन्द्रमामें लीन होना' सामान्य अर्थ है / वेदव्याख्यान या पूर्वापरका स्मरण करनेवाले विद्वान् या देवताकामने उस श्रुतिका अर्थ 'मरनेपर नलरूपी चन्द्रमामें मनको लीन होना' बतलाया है / अतएव सामान्यको अपेक्षा विशेषकी बलवत्ता होनेसे तुम्हारी भाशा ('मरनेपर दमयन्तीका मत मुझ-चन्द्रमें लीन होगा' यह समझना) भूल है। सामान्य बुद्धिवाला ही मनुष्य किसी अति आदिका सामान्य अर्थ ग्रहण करता है, विद्वान् तो विशेष अर्थको ही ग्रहण करते हैं अथवादेवता कामका बतलाया हुमा अतिका विशेष अर्थ ही ग्राह्य है, सामान्य अर्थ नहीं] // 52 // मुखरयस्व यशोनवडिण्डिमं जलनिवेः कुलमुज्ज्वलयाऽधुना। अपि गृहाण वधूवधपौरुषं हरिणलाच्छन ! मुश्च कदर्थनाम् / / 53 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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