SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयः सर्गः। 176 इससे उनके नेत्र लाल-लाल हो रहे हैं अतः ऐसा ज्ञान होता है कि उनके नेत्रों में लालिमा को तुम्हींने उत्पन्न कर दिया है / एकटक देखनेसे या किसीनें अनुरागाधिक्य होनेसे नेत्रके आँसू आना और उनका लाल-लाल हो जाना अनुभूत है ] // 103 / / पातुर्दशाऽऽलेख्यमयीं नृपस्य त्वामादरादस्तनिमील्याऽस्ति / ममेदमित्युअणि नेत्रवृत्तेः प्रीतेनिमेषच्छिदया विवादः // 104 / / इममेवाथ भङ्गायन्तरेणाह-पातुरिति / अस्तनिमिलया निनिमेषया दृशा आले. ख्यमयी चित्रगतां त्वामादरात्पातुष्टुरित्यर्थः पिबतेस्तृन् प्रत्ययः। अत एव 'न लोके'त्यादिना षष्टीप्रतिषेधात्वमिति द्वितीया। नृपस्य नेत्रवृत्तेः प्रीतेश्चतुःप्रीतेनिमेषस्य च्छिदया च्छेदेन सह नेत्रवृत्त्येति शेषः। भिदादित्वादङ प्रत्ययः। अश्रुणि विषये इदमच ममेति मत्कृतमेवेति विवादः कलहः अस्ति भवतीत्यर्थः // 104 / / (उसी भावको प्रकारान्तरसे कहते हैं- ) चित्रमयी तुमको आदरपूर्वक निमेषरहित दृष्टिसे पान करते ( सादर देखते ) हुए राजा नलका आँसूके विषय में नेत्रगत अनुरागका तथा निनिमेषका 'यह मेरा है' ऐसा विवाद होता है / [ नल चित्रलिखित तुमको आदरपूर्वक एकटक देखते हुए आँसू बहाते हैं, तो नेत्रगत अनुराने कहता है कि 'इस आँसूको मैंने उत्पन्न किया है' तथा निमेषाभाव ( एकटक देखना ) कहता है कि इसे मैंने उत्पन्न किया है' इस प्रकार दोनों का झगड़ा चल रहा है / यहाँ पर 'निमेषच्छिदया' में अप्रधान अर्थमें तृतीया विभक्तिका प्रयोगकर नेत्रगत अनुरागजन्य ही आँसू है ऐसा सूचित किया गया है ) / / 104 // त्वं हृद्गता भैमि ! बहिर्गताऽपि प्राणायिता नासिकयाऽस्य गत्या / न चित्तमाकामति तत्र चित्रमेतन्मनो यद्भवदेकवृत्ति / / 105 // अथ मनःसङ्गमाह--स्वमिति / हे भैमि ! त्वं बहिर्गतापि हृद्गता अन्तर्गता, अपि विराधे तेन चाभासाद्विरोधाभासोऽलङ्कारः / कया गत्या केन प्रकारेण अस्य नलस्य प्राणायिता प्राणवदाचरिता प्राणसमा 'उपमानादाचारे' कर्तुः क्यङ प्रत्ययः। नासि अस्येवेत्यर्थः / यतः प्राणोऽपि नासिकया नासाद्वारेण आस्यगत्या मुखद्वारेण उच्छासनिश्वासरूपेण बहिर्गतोऽप्यन्तगतो भवतीति शब्दश्लेषः। अतएव प्राणायितेति लिष्टविशेषणेयमुपया पूर्वोक्तविरोधेन सङ्कीर्णा, किन्तु तत्र प्राणायितत्वे चित्रमाश्चर्यरसः चित्तन्नाकामति न किञ्चिच्चित्रमित्यर्थः / कुतः यद्यस्मादतन्मनो नलचित्तं भवती त्वमेवैका वृत्ति विका यस्य तद्भवदेकवृत्ति, भवच्छब्दस्य सर्वनामत्वाद् वृत्तिमात्रे पुंवद्भावः / जीवितभूतस्य प्राणायितत्वे किं चित्रं, जीवितत्य प्राणधारणात्मकत्वादिति भावः // 105 // ( अब नलकी दूसरी दशा 'चित्तासक्ति' का वर्णन करता है - ) हे दमयन्ति ! बहिः 1. 'चित्र-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy