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________________ नैषधमहाकाव्यम् / मुतियों के अनुसार उन इन्द्रियोंका देवत्व चरितार्थ हो। आजतक तो उक्त श्रुतिवचनके अनुसार केवल वचनमात्रसे ही नेत्रादि इन्द्रियोंको सूर्यादिदेवभाव प्राप्त था, किन्तु अब पुण्यसे तुम्हें पाकर अमृतभोजी होनेसे उनका देवत्व अर्थतः भो चरितार्थ होगा, अमृतभोजी होनेपर ही देवोंका वास्तविक देवत्व है, अन्यथा नहीं। तुम्हारी प्राप्ति नलके लिए अमृतप्राप्तिके समान आनन्दकारी होगी // 10 // तुल्यावयातिरभून्मदोया दग्धा परं साऽस्य न ताप्यतेऽपि / इत्यभ्यसूर्याभव देहतापं तस्याऽतनुस्त्वद्विरहाद्विधत्ते / / 102 / / यदुक्तं नृपं पञ्चेषुस्तापयतीति तदाह-तुल्येति / आवयोनलस्य मम चेत्यर्थः। 'त्यदादानि सनित्यमिति सर्वग्रहणादत्यदादिना नलेन सह त्यदायेकशेषः / मूर्तिस्तनुस्तुल्या तुल्यरूपाऽभूत् / तत्र मदीया सा मूर्तिः परं निःशेषं दग्धा भस्मीकृता, अस्य मूर्तिस्तनुर्न ताप्यते तापमपि न प्राप्यते इति हेतोरभ्यसूयन् ईय॑न्निवेत्युत्प्रेक्षा। अतनुरनङ्गस्त्वद्विरहावद्विरहमेव रन्ध्रमन्विष्येत्यर्थः / तस्य नलस्य देहतापं विधत्ते / तस्मासिद्धिपदमुपतिष्टते ते मनोरथ इति भावः // 102 // 'हम दोनोंकी मृति समान है, भेरी (कामदेवकी) मूर्ति तो जल गया और इस ( नल ) की मूर्ति तो अधिक उष्ण (गर्म-सन्तप्त ) भी नहीं होती' मानो ऐसी ईर्ष्या करता हुआ कामदेव तुम्हारे विरहसे इस ( नल) के शरीरको सन्तप्त कर रहा है // 102 // लिपि हशा भित्तिविभूषणं त्वां नृपः पिबन्नादरनिनिमेषम् / पामरैरपितमात्मचक्षु रागं स धत्ते रचितं त्वया नु / / 103 / / अथास्य दशावस्था वर्णयन् चचुःप्रीतिं तावत् श्लोकद्वयेनाह-लिपिमित्यादि / हे भैमि ! स नृपो भित्तिविभूषणं कुड्यालङ्कारभूतां लिपि चित्रमयीं त्वां रशा आदरेणास्थया निनिमेषं पिबन् चचुर्झरैरश्रुभिरर्पितं त्वया नु त्वया वा रचितमात्मचशुषो रागमारुण्यमनुरागञ्च धत्ते / अत्रोभयकारणसम्भवादुभयस्मिन्नपि रागे जाते श्लेषमहिम्नेकत्राभिधानात्कारणविशेषः सन्देहः // 103 // (हंस नलकी दस ' दशाओंका वर्णन करता हुआ प्रथम दशा 'चक्षुः प्रीति'का वर्णन करता है-) राजा नल दिवालकी अलङ्कार अर्थात् दिवालपर बनायी गयी तुमकी आदरसे एकटक देखते हुए एकटक देखनेसे ( या-अनुरागसे ) बहते हुए नेत्र-प्रवाहों ( आँसुओं) से किये गये मानो तुमसे रचित चक्षुराग ( नेत्रोंमें उत्पन्न लालिमा ) को ग्रहणकर रहे हैं। [ नल भोतमें बनाये गये तुम्हारे चित्रको आदरपूर्वक एकटक देखते हैं, अतः एकटक देखनेसे ( या-तुममें अनुराग होनेसे ) उनके नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहती रहती है, 1. रतिरहस्ये-'नयनप्रीतिः प्रथमं चित्तासङ्गस्ततोऽथ सङ्कल्पः / निद्राच्छेदस्तनुता विषयनिवृत्तिनपानाशः // उन्मादो मूर्छा मृतिरित्येताः स्मरदशा दशैव स्युः' इति /
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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