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________________ भूमिका 16 जब एक राजा का परिचय दे रही थीं, उसी बीच में दमयन्तीके हृद्त अभिप्रायको जाननेवाली सखीने सरस्वतीदेवीको पान का बीड़ा देती हुई कहा कि इस राजाका वर्णन करते. करते आपका मुख थक गया होगा, इस बोड़ेसे उसे दूर कर लें अर्थात जिसे स्वामिनी नहीं चाहती उसका वर्णन करना व्यर्थ है, अतएव पानका बीड़ा चवाने के बहाने उसे समाप्त करें 'विधाय ताम्बूलपुटीं करागां बमाण ताम्बूलकरवाहिनी।। दमस्वसुर्भावमवेष भारती नयानया वक्रपरिश्रमं शमम् // ' ( 1276 ) आगे चलकर वारातियों के मोजन करनेके पश्चात् मुखशुद्धयर्थ वैसी सुपारी दी गयी जो विच्छुके आकारकी यी अतः उसे लेते हो बारातियों ने विच्छू समझकर तुरत फेंक दिया और यह देख वहाँपर उपस्थित दमपक्षीय इस पड़े 'मुखे निघाय क्रमुकं नलानुगैरयोजिम पालिरवेषय वृमिकम् / / दमार्पितान्तर्मुखवासनिर्मितं भयाविलः स्वममहासिताखिलः॥' (16 / 109) बारातियों के साथ दासियों, सखियों या बाराङ्गनाओं और छोटे साले दमका परिहास करने मात्रसे हो कवि को सन्तोष नहीं हुआ तो उन्होंने राजा भीम तकको पर घसीटा / जब सब बारातो भोजन करके निवृत्त हो मुखमथर्थ सुपारी, पान मादि भी ले चुके, तब उन्हें उपहार देते समय स्वयं राजा भीम मो एक नकली तथा एक असली-दो-दो रत्न अपनी हथेलीपर रखकर बारातियोंसे कहने लगे कि इन दोनों रत्नों में से जो रत्न मापको पसन्द हो, उसे आप लेलें, किन्तु अनमिताके कारण जब बाराती नकली रनको पसन्द करने लगे, नव मधुर स्मित करते हुए वे दोनों हो रन बारातियों को दे दिये 'अमीषु तय्यानृतरवजातयोर्विदर्भराट चारुनितान्तचारुणोः / स्वयं गृहाणैकमिहेश्युदय तद् दयं ददौ शेषजितबेहपन् // ' (16 / 110) कविलोग प्रायः अपनी रचनाओं में शृङ्गाररसकी भरमार कर देते हैं, क्योंकि उनकी उसीमें विशेष मक्ति होती है, किन्तु महाकवि श्रीहर्षने शृङ्गारके वर्णन के साथ अन्य रसोंका मो यथास्थान पर्याप्त वर्णन किया है। करुणरसके हंसकृत क्रन्दन एवं दमयन्तीका विरह वर्णन आदि गणनीय उदाहरण है। देखिये, श्री हर्षने मयानक तथा करुणरसका एक ही साथ कैसा सुन्दर चित्रण किया है 'एतनीतारिनारीगिरिगुहविगलासरा निःसरन्ती स्वक्रोटाहंसमोहनहिलशिराशप्रार्थिनोभिद्रचन्द्रा। आक्रन्दद्भरि यत्तन्नयनजलमिलचन्द्रहंसानुबिम्ब प्रत्यासतिप्रहृष्यत्तनपविहसितैराश्वसीम्न्यनसीह // ' (12 / 28) विवाहका दिन निश्चित हो जानेपर अपनी सहधर्मिणीसे घरका समस्त वैवाहिक कार्य करने के लिये कहकर स्वयं बाहर के कार्यका मार ग्रहणकर महलसे इतनी शीघ्रतासे बाहर
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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