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________________ तृतीयः सर्गः। 155 पुरुषका समागम कराने से विज्ञत्वके लिये बहुत कीर्ति पायी है, अतः यदि नल-भिन्न दूसरे पुरुषके साथ तुम्हारा समागम कराते हैं तो उनकी बहुत लोकनिन्दा होगी, अतः तुम्हारा सम्गगम नलके साथ ही ब्रह्मा करायेंगे मेरा दृढ़ विश्वास हैं ] // 51 // आस्तां तदप्रस्तुतचिन्तयाऽलं मयाऽसि तन्वि ! अमिताऽतिवेलम / सोऽहं तदागः परिमाष्टु कामस्तवेप्सितं कि विदघेऽभिधेहि // 52 // इत्थमाशामुत्पाद्य अस्याश्चित्तवृत्तिपरिज्ञानाय प्रसङ्गान्तरेण निगमयति-आस्तामिति / तत्पूर्वोक्तमास्तां तिष्ठतु, अप्रस्तुतचिन्तया अलं, तया साध्यं नास्ती. त्यर्थः। गम्यमानसाधनक्रियापेक्षया करणत्वात्ततीया, अत एवाह 'न केवलं श्रयमाणक्रियापेक्षया कारकोत्पत्तिः, किन्तु गम्यमानक्रियाऽपेक्षयाऽपि इति न्यासकारः। किन्तु हे तन्वि, कृशाङ्गि ! मया अतिवेलम् अत्यर्थ श्रमिता खेदिताऽसि, श्रमेlन्तात् कर्मणि क्तः। तत् श्रमणरूपमागोऽपराधं परिमाष्टुकामः परिहतुकामः। 'तं काममनसोरपी'ति मकारलोपः। सोऽहं कि त्वदीप्सितं तव मनोरथं विदधे कुर्वे, अभिधेहि ब्रूहि // 52 // (दमयन्ती का अभिप्राय जाननेको इच्छासे उपसंहार करता हुआ राजहंस कहता है-) हे तन्वि ! नल-वर्णनरूप अप्रासङ्गिक बातको छोड़ों, मैंने तुमको बहुत समय तक बहुत थकावा ( हैरान किया ) है, उस अपराधका परिमार्जन करनेकी इच्छा करता हुआ मैं तुम्हारा कौन अभीष्ट पूरा करूँ ? कहो // 52 // इतीयित्वा विरराम पत्री स राजपुत्रीहृदयं बुभुत्सुः / हदे गभीरे हदि चावगाढे शंसन्ति कार्यावतरं हि सन्तः // 53 // इतीति / स पत्री हंसः इति ईरयित्वा राजपुत्रया भैम्या हृदयं बुभुत्सुर्जिज्ञासुविरराम तूष्णीं बभूव, 'व्यापरिभ्यो रम' इति परस्मैपदम् / तथाहि-सन्तः कार्यज्ञाः गभीरे अगाधे हृदि हदे च अवगाढे प्रविश्य दृष्टे सति कार्यस्य स्नानादे रहस्योक्तेश्च अवतरं तीर्थ प्रस्तावं च शंसन्ति कथयन्ति, अन्यथा अनर्थः स्यादिति भावः / अवतरो व्याख्यातः / अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः॥ 53 // ऐसा ( 2 / 13-52 ) कहकर राजकुमारी ( दमयन्ती) के हृदयको जाननेका इच्छुक वह पक्षी ( राजहंस ) चुप हो गया, क्योंकि गम्मीर ( गहरा) तडाग तथा गम्भीर ( गुप्त अभिप्राय वाले ) हृदयको आलोडित करनेपर (प्रवेशकर थाह लगानेपर, पक्षा०-अभिप्राय जान लेनेपर ) बुद्धिमान् लोग कार्यारम्भ ( पक्षा०-कार्यका प्रस्ताव ) करते हैं। [जिस प्रकार तैराक गम्भीर जलाशयको बिना आलोडन किये मार्ग निश्चित नहीं करता, उसी प्रकार हृद्गत भावको विना मालूम किये बुद्धिमान् व्यक्ति किसी कार्यके लिये प्रस्ताव नहीं करता अत एव उक्त राजहंस सब कुछ कहकर भी उसे प्रकारान्तरमें गुप्त ही रखकर दमयन्तीका अभिप्राय जानना चाहता है ] // 53 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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