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________________ 148 नैषधमहाकाव्यम् / और क्षमा करनेमें बुद्ध भगवान्से भी अधिक श्रेष्ठ हैं; अत एव हमलोग कामदेवादिका स्मरणतक भी नहीं करते / [ लोकमें भी श्रेष्ठ वस्तुको पाकर लोग निकृष्ट वस्तुका स्मरण नहीं करते हैं ] // 36 / / विना पतत्रं विनतातनूजैस्समीरणैरीक्षणलक्षणीयैः / मनोभिरासीदनणुप्रमाणैर्न निजिता दिकतमा तदश्वैः // 37 / / विनेति / पतत्रं विना स्थितैरिति शेषः / विनतातनूजैः वैनतेयैः, अपक्षतायैरित्यर्थः / ईक्षणलक्षणीयैः समीरणैश्चाक्षुषवायुभिः अनणुप्रमाणेः 'अणुपरिमाणं मन'इति तार्किकाः, तद्विपरीतैर्महापरिमाणैर्मनोभिर्वैनतेयादिसमानवेगैरित्यर्थः / एवंविधैः तदश्वैः कतमा दिक न लविताऽऽसीत् ? सर्वापि लकितैवासीदित्यर्थः। अनाश्वानां विशिष्टवैनतेयादित्वेन निरूपणाद्रुपकालङ्कारः // 37 // पडोंके विना गरुड़रूप, नेत्रों में दृश्यमान वायुरूप तथा अणुपरिमाणसे भिन्न (विशाल ) मनरूप-नलके घोड़ोंने किस दिशाको पार नहीं किया है ? अर्थात् उक्तरूप नलाश्व सब दिशाओंके पार तक जाते हैं / [ पङ्खोंके सहित गरुड़, नेत्रका अगोचर वायु तथा अणुप्रमाण मन ही सब दिशाओंको शीघ्र पार करनेमें समर्थ हैं, किन्तु नलके घोड़े पक्षादि से हीन होते हुए भी शीघ्र सब दिशाओंके पारतक जाते हैं ] // 37 / / संग्रामभूमीषु भवत्यरोणामौर्नदोमातृकतां गतासु / तद्वाणधारापवनाशनानां राजनजीयैरसुभिम्सुभिक्षम || 18 // संग्रामेति / अरीणामझेरसृम्भिनद्येव माता यासां तास्तासां भावस्तत्ता नदीमा. तृकता नद्यम्बुसम्पन्नशस्याढ्यता, 'देशो नद्यम्बुवृष्टयम्बुसम्पन्नव्रीहिपालितः। स्यान्नदीमातृको देवमातृकश्च यथाक्रममि'त्यमरः / 'नद्यतश्चेति कप , स्वतलोर्गुणवचनस्येति पुंवद्भावः। तां गतासु संग्रामभूमीषु तस्य नलस्य बाणधारा बाणपरम्परास्ता एव पवनाशनास्तेषां राजव्रजीयैः राजसंघसम्बन्धिभिः, 'वृद्धाच्छः' / असुभिः प्राणवायुभिः सुभिक्षम् / भिक्षाणां समृद्धिर्भवति समृद्धावव्ययीभावः / नदीमातृकदेशेषु सुभिदं भवतीति भावः / रूपकालङ्कारः // 38 // शत्रुओंके रक्तसे नदीमातृकत्वको प्राप्त युद्धभूमिमें राज-समूहके प्राणोंसे उस (नल ) के बाणधारारूपी सपोंके लिए सुभिक्ष होता है। नदी नहर आदिके जलसे जहाँ खेतों की सिंचाई होती है, उन्हें 'नदीमातृक' देश कहते है। ऐसे स्थानोंमें खेती करनेवाले किसानोंके लिए सुभिक्ष होता है --अकाल पड़नेका भय नहीं होता। प्रकृतमें नल युद्ध में शत्रुओंको बाणवृष्टिकर मारते हैं, उनके शत्रुओंके रक्त-प्रवाहसे युद्धभूमि द्रावित हो जाती है, अत एव वहाँ मानों अच्छी तरह सिंचाई हो जाती है। नलके बाणोंकी वृष्टिधारा ही वायुभक्षण कर्ता ( सर्प) है और शत्रु-राजाओंके प्राण वायुरूप है, अत एव नलके बाणों की वृष्टिधारारूप पवनभक्षी सर्प मृत राजाओं के प्राणरूप वायु का भक्षण करते हैं, इस
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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