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________________ तृतीयः सर्गः। 140 ब्रह्मासे लज्जाका त्यागकर लक्ष्मीमें रमण करते हैं / ] विष्णु भगवान्की पताकामें पक्षियोंके स्वामी गरुड़ रहते हैं, अतएव वे विष्णु भगवान् गरुड़के भृत्य-समूह हमलोगोंके कमलशोभाको जीतने वाले नल-मुखकी प्रशंसा करने के लिए संकेत कर देते है और जब हमलोग नलके मुखकी प्रशंसा करने लगते हैं तो उनके नाभिका कमल स्वविजयी नल मुखके भय या लज्जासे मुकुलित हो जाता है और कमलपर रहनेवाले ब्रह्मा उसीके भीतर बन्द हो जाते है, अत एव विष्णुभगवान् पितामहका साक्षात्कार नहीं होनेसे लज्जा छोड़कर लक्ष्मी के साथ रमण करने लगते हैं ] // 34 // रेखाभिरास्ये गणनादिवास्य द्वात्रिंशता दन्तमयोभिरन्तः। चतुर्दशाष्टादश चात्र विद्या द्वेधाऽपि सन्तीति शशंस वेधाः // 5 // रेखाभिरिति / अस्य नलस्य आस्ये दन्तमयीभिर्दन्तरूपामिद्वात्रिंशता रेखाभिणनात्संख्यानाचतुर्दश चाष्टादश च विद्या द्वेधा अपि अत्र आस्ये सन्ति सम्भवन्यायेनेति वेधाः शशंसेवेत्युत्प्रेक्षा / 'अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः / पुराणं धर्मशास्त्रञ्च विद्या घेताश्चतुर्दश // आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्बश्चेत्यनुक्रमात् / अर्थशास्त्रं परं तस्माद्विद्या ह्यष्टादश स्मृताः // ' इति // 35 // ___ ब्रह्माने इस ( नल ) के मुखमें दमयन्ती बत्तीस रेखाओंके द्वारा गिननेसे इस ( नलके मुख ) में चौदह तथा अट्ठारह-दोगे प्रकारकी विद्याएँ है, मानो ऐसा कह दिया है / ( नलके मुखमें बत्तीस दाँत नहीं है, किन्तु इसमें स्थित दोनों प्रकारकी विद्यायें रहती हैं, इस बातको ब्रह्माने बत्तीस रेखाओंको करके कहा है। नलके नुखमें बत्तोस दाँत हैं पूरे बत्तीस दाँत वाले मनुष्य का कथन सर्वदा सत्य होता है, ऐसा सामुद्रिक शास्त्रका वचन है, अतः नलका सदा सत्यवक्ता होना सूचित होता है ] // 35 // श्रियौ नरेन्द्रस्य निरीक्ष्य तस्य स्मरामरेन्द्राविव न स्मरामः / वासेन सम्यक श्रमग्रोथ तस्भिन बुद्धौ न दध्मः खलु शेषबुद्धौ / / 36 / / श्रियाविति / तस्य नरेन्द्रस्य श्रियौ सौन्दर्यसम्पद निरीचय, शोभासम्पत्तिपद्मासु लक्ष्मीः श्रीरि'ति शाश्वतः / स्मरामरेन्द्रावपि न स्मरामः किं च तस्मिन्नरेन्द्रे नमयोः तितिक्षान्त्योः क्षितिक्षान्त्यो. क्षमे'त्यमरः। सम्यग्वासेन निर्बाधस्थित्या शेषबुद्धौ फणिपतिबुद्धदेवौ चित्ते न दध्मः न धारयामः खलु / अत्र द्वयोरपि श्रियोः टूयोरपि क्षमयोः प्रकृतत्वात् केवलप्रकृतश्लेषः / एतेन सौन्दर्यादिगुणैः स्मरादिभ्योऽप्यधिक इति व्यतिरेको व्यज्यते / श्लेषयथासंख्ययोः सङ्करः // 36 // ___ उस राजा ( नल ) की शरीर शोभा तथा राज्यलक्ष्मीको देखकर हम लोग कामदेव तथा देवेन्द्रका भी स्मरण नहीं करते है, तथा उस राजा ( नल ) में पृथ्वी तथा क्षमा (तितिक्षा ) के निवास करनेसे शेषनाग तथा बुद्धको भी बुद्धिमें नहीं लाते / [नल शरीरकी शोभामें कामदेवसे तथा राज्यैश्वर्यमें इन्द्रसे, एवं पृथ्वीभारवहन करनेमें शेषनागसे
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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