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________________ 140 नैषधमहाकाव्यम् / स्यात्त तरिक्रया' इति शब्दार्णवे / दोहदवशाद् वृक्षा इव देवता अपि उत्कटपुण्यव. शाददेशकालेऽपि फलं प्रयच्छन्तीत्यर्थः दृष्टान्तालङ्कारः // 21 // ( अब दो श्लोकों ( 3 / 21-22 ) में मर्त्यलोकवासी भी नलके स्वभोंग्य भाग्यका प्रतिपादन करता है-) देवलोग यागादि तथा तडाग-वाटिकादिसे नलके वशीभूत होकर यहां पर ( इस भूलोकमें ) भी स्वर्गीय भोगको रचना करते हैं, क्योंकि वृक्ष भी दोहद सेकके प्रभावसे असमय में कलिकाको उत्पन्न करते हैं / अथवा-जब अमर्त्य (मनुष्यभिन्न) जड वृक्ष भी इष्ट ( दोहद-धूप खाद आदि देने ) तथा पूर्त ( थालामें पानी आदि देने ) से असमयमें कलिकाको देते हैं, तब सर्वशक्ति सम्पन्न देवगण यज्ञ तथा वापी-कूप-तडागारामादिसे प्रसन्न होकर मर्त्यलोकमें भी नल के लिए स्वर्गीय भोग देते हैं, इसमें कौन-सा आश्चर्य है ? ) // 21 // सुवणशलादवतीय तूर्ण स्वाहिनीवारिकणावकोणः / तं वीजयामः स्मरकेलिकाले पढेन पंचामरबद्धसख्यैः / / 22 / / स्वभॊगमेवाह-सुवर्णेति / सुवर्ण शैलान्मेरोस्तूर्णमवतीर्य अवरुह्य स्वर्वाहिनीवारिकणावकीर्णे मन्दाकिनीजलबिन्दुसम्पृक्तैः चामरेषु बद्धसंख्यैस्तत्सदृशैः पक्षः पतत्रैः स्मरकेलिकाले तं नृपं वीजयामः तादृक्पक्षवीजनैः सुरतश्रान्तिमपनुदाम इत्यर्थः॥२२॥ देवों ( या-चामर ) के साथ मित्रता करनेवाले हम लोग ( मुझ-जैसे बहुत-से सुवर्णमय हंस ) काम-क्रीडाके समय सुमेरुपर्वतसे शीघ्र उतरकर आकाशगङ्गाके जलकणसे आई पङ्खों द्वारा उस ( नल ) को हवा करते हैं [ उपर्युक्त श्लोकमें देवलोग नलके स्वर्गभोगकी रचना करते हैं, तथा इस श्लोक में कथित हवा करनेसे हम लोग स्वर्गभोगकी रचना करते हैं, अत एव हमारा तथा देवोंका नलके लिए स्वर्गीय भोगरचनारूप एक कार्य होनेसे परस्परमें मैत्री होना उचित ही है, तथा राजा नलका चामरके द्वारा हवा की जाती है, और हम लोग पंखों द्वारा हवा करते हैं, अतः समान कार्य होनेसे चामरके साथ भी हमारी मित्रता होना उचित ही है ] // 22 // क्रियेत चेत्साधुविभाक्ताचन्ता व्याक्तस्तदा सा प्रथमाभिधेया। या स्वौजसां साधयितुं विलासैस्तावत्क्षमा नामपदं बहु स्यात् / / 23 / / __क्रियेतेति साधुविभक्तिचिन्तां सजनबिभागविचारः क्रियेत चेत्सा नलाभिधाना व्यक्तिः मूर्तिः प्रथमाभिधेया प्रथमं परिगणनीया। कुतः या व्यक्तिः स्वौजसा विलासैाप्तिभिः तावद्वहु तथा प्रभूतं नास्ति नामो नतिर्यस्येति-अनाकमननं पदं परराष्ट्र साधयितुं स्वायत्तीकर्तुं क्षमा समर्था स्यात् / अन्यत्र साधुविभक्तिचिन्ता सप्तविभक्तिविचारः क्रियेत चेत् यदा सा प्रथमा व्यक्तिः अभिधेया विचार्या, या स्वौजसा 'सु औ जस्' इत्येषां प्रत्ययानां विलासैः विस्तारैस्तावद्वहु अनेकं नामपदं . सुबन्तपदं 'वृक्ष' इत्यादिकं पदं साधयितुं निष्पादयितुं क्षमा / अत्राभिधायाः प्रकृतार्थमात्र नियन्त्रितत्वावक्षणायाश्चानुपषत्त्यभावेनाभावादप्रकृतार्थप्रतीतिर्ध्वनिरेन // 23 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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