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________________ 100 नैषधमहाकाव्यम् / [सदृश वस्तुके देखने पर पूर्वसंस्कारके जागृत होने से चिरदृष्ट वस्तुका भी स्मरण हो जाता है, अत एव आपकी सर्वाधिक सुन्दरताको देखकर मुझे बहुत पहले देखी गयी भी उस दमयन्तीका स्मरण हो गया ] // 43 // . त्वयि वीर ! विराजते परं दमयन्तीकिलकिंचितं किल / तरुणीस्तन एव दीप्यते मणिहारावलिरामणीयकम् / / 44 / / ततः किमत आह-त्वयीत्यादि / हे वीर ! दमयन्त्याः किलकिञ्चितम्, 'क्रोधाश्रुहर्षभीत्यादेः सङ्करः किलकिञ्चितमि'त्युक्तलक्षणलक्षितशृङ्गारचेष्टितं त्वयि परन्त्वय्येव विराजते किल शोभते खलु / तथाहि-मणिहारावलेर्मुक्ताहारपङ्क्तेः रामणीयकं रमणीयत्वं 'योपधाद् गुरूपोत्तमाद् वुञ्' / तरुणीस्तन एव दीप्यते, नान्यत्रेस्यर्थः / स्तनादीनां द्वित्वविशिष्टा जातिः प्रायेणेति प्रायग्रहणादेकवचनप्रयोगः / अत्र हारकिलकिञ्चितयोरुपमानोपमेययोर्वाक्यद्वये बिम्बप्रतिबिम्बतया स्तननृपयोः समानधर्मत्वोक्तदृष्टान्तालङ्कारः, लक्षणन्तूक्तम् // 44 // ___हे वीर ( नल )! दमयन्तीका किलकिञ्चित (शृङ्गारसम्बन्धी चेष्टाविशेष ) केवल आपमें ही विशेषतः शोभित होता है, क्योंकि मणियोंके हारोंकी रमणीयता युवतीके ही स्तनों पर विशेष शोभती है / [ युवतियोंको वीरस्वामी ही अधिक प्रिय होता है, अत एव यहाँ नल के लिए हंसने 'वीर' पदका प्रयोग किया है / क्रोध, रोदन, हर्ष और भयादिके सम्मिश्रण के साथ की गयी स्त्रियोंकी शृङ्गार चेष्टाको 'किलकिञ्चित' कहते हैं ] // 44 / / तव रूपमिदं तया विना विफलं पुष्पमिवावकेशिनः / इयमृदुधना वृथाऽवना, स्ववनी सम्प्रवदत्पिकापि का ? // 4 // सवेति / हे वीर ! तवेदं रूपं सौन्दर्य तया दमयन्त्या विना अवकेशिनो वन्ध्यवृक्षस्य 'वन्ध्योऽफलोऽवकेशी चे'त्यमरः। पुष्पमिव विफलं निरर्थकम्, ऋद्धधना सम्पूर्ण वित्ता इयमवनी वृथा निरर्थिका / सम्प्रवदत्पिका कूजत्कोकिला स्ववनी निजोधानमपि 'डीप' का तुच्छा निरर्थिकेत्यर्थः। तद्योगे तु सर्व सफलमिति भावः / 'किं वितर्के परिप्रश्ने क्षेपे निन्दापराधयोरिति विश्वः / अत्र नलरूपावनीवनीनां दमयन्त्या विना स्म्यतानिषेधाद्विनोक्तिरलङ्कारः / 'विना सम्वन्धि यत्किञ्चिदत्रान्यत्र परा भवेत् / रम्यताऽरम्यता वा स्यात् सा विनोक्तिरनुस्मृते ति लक्षणात् / तस्याश्च पुष्पमिवेत्युपमया संसृष्टिः॥४५॥ ( उत्कण्ठावर्धनार्थ राजहंस पुनः कहता है कि-हे राजन् ! ) उस ( दमयन्ती ) के बिना यह तुम्हारा रूप फलहीन वृक्षके पुष्पके समान (या-मुण्डितमस्तक व्यक्तिके मस्तक पर धारण किये गये पुष्प के समान ) व्यर्थ है, बढ़ी हुई सम्पत्तिवाली यह पृथ्वी ( तुम्हारा राज्य ) भी व्यर्थ है और जिसमें कोयल कूकती है ऐसा अपना ( आपका ) उद्यान में क्या है ? अर्थात् कुछ नहीं-सर्वथा निःसार है॥ 45 //
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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