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________________ द्वितीयः सर्गः 86 तथा बांये नेत्रकी कानतक पहुँचनेसे उत्पन्न विशालस्वरूप शोभाको दहिना नेत्र स्वीकार करता है / कानतक पहुंचकर विशाल होनेसे दहना नेत्र पाये के समान तथा बांया नेत्र दहनेके समान सुन्दर है, इस तरह यहां भी सादृश्य में ही तात्पर्य है। तथा पुराणादिमें मुने गये एवं किन्हीं स्त्रियों में देखे गये दमयन्ती सम्बन्धी (या-किन्हीं स्त्रियों में सुने गये एवं किन्हीं स्त्रियों में देखे गये स्त्री-सम्बन्धी ) गुण लोगोंके द्वारा सुने जानेसे विनिमयसे शोमते हैं / पुराणादिमें (या-किन्हीं स्त्रियों में ) जो सुने गये किन्हीं खियों में देखे गये और वे दमयन्तीमें ही सुने जाते हैं, इस प्रकार सुने तथा देखे गये दमयन्ती-सम्बन्धी स्त्री-गुणोंका श्रुतिगामित्व है, अतः सुने गये दमयन्तीके स्त्री-गुणोंकी श्रुतिगामी होनेसे शोभाको उसके देखे गये गुणोंने स्वीकार किया तथा देखे गये दमयन्तीके स्त्री-गुणों को अतिगामी होनेसे शोमाको उसके सुने गये गुणों ने स्वीकार किया-इस प्रकार विनिमय जानना चाहिये / सुने गये दमयन्ती-सम्बन्धी खो-गुण जैसे शोमते हैं, देखे गये दमयन्ती. समन्धी स्त्री-गुण मी वैसे ही शोभते हैं, इस प्रकार सादृश्यमें ही तात्पर्य-जानना चाहिये अर्थात् सुने तथा देखे गये सम्पूर्ण स्त्री सम्बन्धी गुण दमयन्तीमें ही विद्यमान हैं / अथवासामुद्रिक शास्त्रों में देखे गये एवं पद्मिनी' आदि में सुने गये स्त्री-गुण परस्पर विनिमयसे दमयन्तीमें ही शोमते हैं ] // 22 // नलिनं मलिनं विवृण्वती पृषतीमस्पृशती तदीक्षणे | आप खञ्जनमञ्जनाञ्चिते विदधाते कचिगवदुविधम् // 23 // नलिनमिति / नलिनं पद्मं मलिनमचारु विवृण्वती कुर्वाणे पृषती मृगीमस्पृशती असमानस्वात् दूरादेव परिहार इत्यर्थः, तदीक्षणे तसोचने अझनाश्चिते कज्जलपरि. कृत्ते सती खञ्जनं खञ्जरीटास्यं खञ्जननामकः पक्षिविशेषः 'खारीटस्तु खञ्जन' इत्यमरः / तमपि रुचिगर्वदुविधं चारुस्वगर्वनिःस्वं विदधाते कुर्धाते, सर्वथाप्यनुमेये इत्यर्थः / 'निःस्वस्तु दुविधो दीनो दरिद्रो दुर्गतोऽपि स' इत्यमरः। ईक्षणयोनलिना. दिमलिनीकरणाद्यसम्बन्धे सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः, तया चोपमा प्यज्यत इत्यः लङ्कारेणालङ्कारध्वनिः // 23 // कमलको मलिन ( सौन्दर्यहीन ) करते हुए तथा मृगीका स्पर्श तक नहीं करते हुए अर्थात् अत्यन्त हीन मृगी नेत्रका दूरसे ही परिहार करते हुए अञ्जनयुक्त दमयन्तीके नेत्र 'खजरीट' नामक पक्षीको शोमाविषयक अभिमान में दरिद्र बना रहे हैं अर्थात् दमयन्तीके नेत्रों की श्रेष्ठतासे स्वञ्जरीटका .शोभासम्बन्धी अभिमान नष्ट हो जाता है। [अथवाअक्षन शलाकाका स्पर्श नहीं किये हुए अर्थात् अञ्जनसे हीन एवं कमलको मलिन करते हुए दमयन्ती के नेत्र विस्फारित होकर कमलको मलिन (शोभाहीन) करते हैं और अञ्जनसे मुशोभित होकर खभरीटको सौन्दर्य-मदके विषयमें दरिद्र करते है। अथवा-(मात्मगत] श्यामताको प्रकाशित करते हुए दमयन्तीके नेत्र कमलको शोमा-सम्बन्धी अभिमानके
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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