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________________ 88 नैषधमहाकाव्यम् / अपि लोकयुगं दृशावपि श्रुतदृष्टा रमणीगुणा अपि / श्रुतिगामितया दमस्वसुर्व्यतिभाते सुतरां धरापते ! // 22 // अपीति / हे धरापते ! दमो नाम भीमस्यैवात्मजस्तस्य स्वसुर्दमयन्याः लोक. युगं मातापितृकुलयुगं श्रुतिगामितया वेदप्रसिद्धतया सुतरां व्यतिमाते परस्परोस्क. र्षेण भाति तथा रशी नेत्रे अपि श्रुतिगामितया कर्णान्तविश्रान्ततया व्यतिभाते परस्परोस्कर्षण भातस्तथा श्रताः श्रुतिप्रसिद्धाः तेच ते रष्टाः लोकप्रसिदाश्च विशे. षणयोरपि विशेषणविशेष्यभावविवक्षायां विशेषणसमासः, ते रमणीगुणाः स्त्रीधर्मा अपि अतिगामितया जनैः श्रयमाणतया 'श्रुतिः श्रोत्रे तथाम्नाये वार्तायां श्रोत्रकर्मणीति विश्वः / सुतरां व्यतिमाते व्यतिहारेण भान्ति / 'आत्मनेपदेष्वनत' इति झस्थादादेशः, सर्वत्र 'कर्तरि कर्मव्यतिहार' इत्यात्मनेपदम् , अदादित्वाग्छपो लुक, सर्वत्र टेरेस्वम् / अत्र लोकयुगादीनान्त्रयाणामपि प्रकृतत्वात् केवलप्रकृतविषयतुल्य. योगिताभेदः / 'प्रस्तुताप्रस्तुतानाच केवलं तुष्यधम्मंतः / औपम्यं गम्यते यत्र सा मता तुल्ययोगिले'ति लक्षणात // 22 // __ हे भूपते ( नल ) ! 'दम' ( भीम राजाके पुत्र ) की बहन अर्थात् दमयन्तीके मातृकुल तथा पितृकुल वेदप्रसिद्ध (या--लोकप्रसिद्ध ) होनेसे परस्परमें शोमते हैं, दोनों नेत्र मी कानों तक पहुंचने से अर्थात् अत्यन्त विशाल होनेसे परस्पर में शोभते हैं और शास्त्रों में सुने तथा किसी सुन्दरीमें देखे गये स्त्री-सम्बन्धी गुण भी लोगों के द्वारा सुने जानेसे परस्पर में शोमते हैं / [ यहाँ 'वि अति' उपसर्ग वाले दीप्त्यर्थक 'मा' धातुसे सिद्ध प्रथम पुरुष की 'व्यतिमाते' क्रिया दी गयी है, एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचनमें एक ही रूप होनेसे उक्त एक ही क्रियापदका सम्बन्ध क्रमशः एकवचन 'लोकयुगम्' द्विवचनमें 'दुशौ' तथा बहुवचन 'रमणीगुणाः' तोनों पदों के साथ होता है। 'कर्तरि कर्मव्यतिहारे' ( पा० सू० 13.14 ) के नियम से 'वि-अति' उपसर्गों के साथ 'म!' धातुका परस्पर विनिमय अर्थ होता है; अत एव इस इलोकका विशद अर्थ यह है-दमयन्तीके मातृकूल लोकप्रसिद्ध हैं, अतः इस मातृकुल के लोकप्रसिद्ध स्वको दमयन्तीके पितृकुल ने स्वीकार किया तथा दमयन्तीका पितृकुछ भी लोकप्रसिद्ध हैं, अतः उस पितृकुलके लोकप्रसिद्धत्वको दमयन्तीके मातृकुलने स्वीकार किया अर्थात् दमयन्तीके सम्बन्धसे पितृकुलके समान मात. कुक तथा मातृकुल के समान पितृकुल शोमता है, इस प्रकार सादृश्यमें तात्पर्य मानकर परस्पर विनिमय करना चाहिये / वह सादृश्य अतिगामी ( जगत्प्रसिद्ध ) होनेसे विशिष्ट होता है और जगत्प्रसिद्धस्वरूप मातृकुलका •सादृश्य पितृकुलकी अपेक्षा तथा पितृकुलका सादृश्य मातृकुलकी अपेक्षासे है, नेत्रादि अपेक्षासे नहीं। इसी प्रकार दमयन्तीके दोनों नेत्र मी कान तक पहुँचने ( कानों तक पहुंचकर विशाल होने ) से परस्पर विनिमयसे शोमते हैं अर्थात् दहने नेत्रकी कानतक पहुँचनेसे उत्पन्न विशालस्वरूप शोमाको वामनेत्र
SR No.032781
Book TitleNaishadh Mahakavyam Purvarddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1976
Total Pages770
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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