SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एहवें समें बें मित्र देव-देवता श्री सिधाचलजीने भेटवा आव्या छं। जात्रा करें छे। एहवे एक स्तानकें मुनिराज एकलो सुर्य सामो आतापना ले छे, तिवारे मित्रदेवता मित्रदेवनें पुछे छे, "जे हे मित्र! आ मुनीनी वात तुं कांई जाणे छ?" तिवारें देवमित्रने मित्र कहे छे, "जे हुं तो मुनी(नी) वात नथी जाणतो, पिण अ(आ)जथी हुं सातमा दीवस पहिला हुँ महाविदेहें श्रीसीमंधर स्वामिने वांदवा गयो हतो, तिवारें श्री सीमंधर स्वामी केहता हवा। महा अधरमनो करनार, सात वसन नो सेवनार, प्रजानें पिडनार एहवो करकंडु नामे राजा राजसभा पुरीने बेठो छ। एहवे आकास थकी कल्पवृक्ष- पानडु सभामां पडूं। पानडामा एक श्लोक लख्यो छे। ते श्लोक राजाई वांच्यो। ते वाचतां राजा थर-थर ध्रुज्यो, कंपवा लागो। विचारवा लागो, “जे हवे हुं एहवा पाप थकी किम छुटुं? तो अवस्य आपघात करीने मरवू ज।" इम विचारीने एकलो नगर बाहेरें राजा निकल्यो। च्यार प्रहर रात सुधी चाल्यो। प्रभात थयो तीवारें कोईंक मोटी अटवीमां आंबाना वृक्ष तले विसामो लेवानें राजा बेट्ठो। मनमां विचारे छे, "जे आपघात किणि रीतें करीने मरूं?" एहवामां अकस्मात एक गाय सेंघडा उलालती राजाने मारवा धाई। तिवारें भयभ्रंत थकें राजाई खडक काढी गायने प्रहार मुक्यो। ते गायना बें खंड थया। ते गायमांथी एक स्त्री नवजोवना आभुषण वस्त्रे सहीत माहारुप स्वीहनें विर्षे काती धरती सामि उभा रही। तें स्त्रि राजानें कहें छे, ''अरे दुष्ट! दुर्बल पसु जे गाय तेहनें हणीने स्यूं पाप करयुं? जे क्षित्रि होइं ते दुर्बलनें न हणे। जो तुझमां पराक्रम होय तो मुझ संघातें जुध कर। तिवारें तुं क्षित्रि पुरुष खरो।" एहवां लापता (?) वचन सांभली राजा खडग लेइने ते स्त्रि सामो धायो। एहवें स्त्रिंई कातिनो प्रहार मुक्यो। ते राजा हेठो पड्यो। तिवारें ते स्त्रि वलि राजानें कहें, "पराक्रम वली कांई छे?" ते वचन सांभलीने राजा घणुं रातो-तातो थयो। पण उठवानो बल सरिरमा रह्यो नथी। तिवारें राजा मनमां विचारे छे, 'अहो धिगस्तु होः मुझनें जे अबला, स्त्री केवाई तिणें मुझनें जित्यो।' इम मोटा आलोचमां राजा पड्यो। एहवें आंख उघाडिनें जोवे तो गाय पण नहीं, स्त्रि पण नहीं, कातिनो प्रहार पणि नहि। एहवो देखी राजा पिण विचारवा लागो, 'जे हुं सू' देखुं छु के इं(द्र) जाल देखू छु।' ___ एहवू जिहां विचारें छे तिहां अंबिका एहवें नामे राजानी गोत्रादेवी प्रगट थइने कहें छे, ''हजि तुं धर्मने अजोग छ। छ महिना सुधि प्रथवीमा भमिस, नाना प्रकारना तिर्थ करीस, घणा दुख सहिस, तिवारें तुझने समता आवस्यें। तिवारे हुं तुझनें रुडु थानक बत्तावीस।" इंम कहिनें देवी अदृश थई। राजाई ते देवीना वचन साभली वीचारवा लागो पण समता न आवी। तिहां श्रुद्धी धर्मनी वात वेगली रही। इंम विचारीने राजा वली आगल चाल्यो। मार्गने विषे अनें(क) प्रकरना कष्टने सहतो छ मास थई गया। एहवे एक पर्वत आव्यो। ते हेढे वडवृक्ष छे, तिहां आव्यो। एतले सुर्य अस्त थयो। तिवारें राजाई चीतवं, "रात्र इहां रहीइं।" एहवू वीचारीने तिहां रह्यो। वडना पांनडानो संथारो करीने उपरें बेठो। चित्तने विषे आलोचे छे, जे हजि सुधी मुझनें समता न आवी। जो समता आवी होततो देवीइं मुझनें धर्मस्थानक बतावेत। इम वीचारतां राजाने निंद्रा आवी। एहवें एक राक्षस आव्यो। ते केहवा लागो, "अरे राजा! ते राज्यने अहंकारें करीनें माहरी स्त्रिी, माहरु धन ते लिधुं। तेहना फल जो तुझनें उदये आव्यां छ।" इम कहीने राक्षसें राजा प्रतें उपाडिने चाल्यो। पर्वतनी कंधराई जईनें राक्षस विचारवा लागो, "ए(ए) राजाने भक्षण करूं तथा समुद्रमां नाखुं तथा खंडोखंड करुं पिण तोय माहरो कषाय उपसमें नहीं। एतलां वाना सिद करूं? मोटा पथरनी सला उपरें अणिआलां लोहनां गोखरु देवमायाई विकुरव्या। ते उपरें धोबी जीम लुघडां झापटें, तिम राजाने राक्षस झींके, तिम पछाडे तोहि पिण राजाने लगार मात्र कषायनो उदय न थयो। इंम च्यार प्रहर राजानें उपद्रव्य करिने राक्षस थाको। राक्षसे विचारूं, "जे ए तो इम मरतो नथी हुं सूं सु करुं?" थाकिने पाछो वडतलें मुक्योः / प्रभात कालें थयो, एहवें गोत्रदेवी वली प्रगट थई। ते कहेवा लागी, "हे राजा! तू सोरठ देसेः श्री पुंडरीक पर्वत छे, तीहां जई चारित्र लेई, ते पर्वतना महिमा थकी सातमें दीवसें कर्म क्षय करी मोक्ष जाइसः।" एहवू गोत्रादेवी कहिनें अदृस्य थई। तिहाथी राज्यमार्गे आवतां मुनि मिल्यां। देसना सांभली चा(रि)त्र लेई पुंडरीकगिरीइं कंडूराजारीषि आव्या। गिरिराजनें भेटी रिषभनी मूर्ति नई वांदी श्री वीरनें चरणे नमी, एकाते जइ सुर्ज सामी आतापना ले छे। तेहनें आज सातमो दीवस छं।" देवता ते पोताना मित्रदेव तेनें कहें छे, "ते माटे हवणां ए मुनीने केवलज्ञान उपजसे।' पटदर्शन - 91
SR No.032780
Book TitlePat Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana K Sheth, Nalini Balbir
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy